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Sunday, May 29, 2011

नौकरीपेशा होने का दर्द.. :P

घर के खाने से नाता तोड़,
चले हम अपने शहर को छोड़,
पैसे खूब कमाते हैं,
अब नौकरी पर जो जाते हैं |

थक कर शाम जब वापस आते,
खाते-पीते और सो जाते,
हर दिन ऐसा ही बिताते हैं,
अब नौकरी पर जो जाते हैं |

कभी जो घर कि याद सताए,
नयन भर अपनों को देख न पाएं,
छुट्टी के पैसे कट जाते हैं,
अब नौकरी पर जो जाते हैं |

नीरस और अकेला जीवन,
आराम नहीं मिलता भर मन,
बड़े लोग कहलाते हैं,
अब नौकरी पर जो जाते हैं |

जीवन सीमित एक कमरे में,
अनजानापन हर चेहरे में,
परायों में मन बहलाते हैं,
अब नौकरी पर जो जाते हैं |

मज़ा है आता सबके साथ,
पर है अब सबकुछ अपने हाथ,
जल्दी में दौड़े जाते हैं,
अब नौकरी पर जो जाते हैं |

गौरवबोध यकीनन आया है,
पर सूनापन संग लाया है,
जिससे भाग नहीं हम पाते हैं,
अब नौकरी पर जो जाते हैं |

उस दिन हमने बांटी थी मिठाई,
बाद उसके मिठास वापस न आयी,
यंत्रवत बस जिए जाते हैं,
अब नौकरी पर जो जाते हैं |

2 comments:

  1. नौकरी भी जरुरी है और घर भी दोनों एक दूसरे के पूरक है | इसमें सामंजस्य बैठाने की कोशिश करे अच्छी अभिव्यक्ति , बधाई

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  2. नौकरीपेशा के दर्द को बखूबी उकेरा है।

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