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Tuesday, January 15, 2013

मैं बलात्कार के खिलाफ़ क्यों हूँ?

दुनिया में कई चीज़ें ऐसी हैं जिन्हें मैं बर्दाश्त कर ही नहीं सकती। बलात्कार, बलात्कारी, किसी भी तरह का शारीरिक शोषण, महिलाओं की इज्ज़त न करना, छेड़छाड़ एवं इन्हें जायज़ ठहराने वाले या शह देने वाले बुद्धिहीन लोग ऐसी ही चीज़ों में शुमार हैं।
अखबारों में आएदिन तमाम खबरें छपती रहती हैं मगर बलात्कार की घटनाएँ मुझे मानसिक तौर पर हिलाकर रख देती हैं। कई कारण हैं इसके पीछे; यह भी कि मैं खुद एक महिला हूँ। मैं और बातों पर नहीं जाऊँगी, बस, अपने बचपन की एक याद साझा करना चाहूँगी।
मैं तब स्कूल में पढ़ती थी। हमारे घर में बर्तन मांजने एक महरी आती हैं। चूँकि वो काफी पुरानी हैं इसलिए मम्मी की खासी चहेती भी हैं। मैं खाना खाने में काफी समय लेती हूँ। स्कूल से आने में मुझे काफी देर हो जाया करती थी इसलिए वो जब भी घर आतीं, मैं खाना खा ही रही होती थी। अमूमन उनके काम निपटाने तक मैं खाना खा ही रही होती थी तो मेरे कुछ बर्तन बचे रह जाते थे। इसके लिए वो जब-तब मुझे कुछ कहतीं, मगर मेरी लाख कोशिशों के बावजूद मैं खाना समय पर ख़त्म न कर पाती। कभी एक कटोरी-चम्मच या कभी एक प्लेट बची रह ही जाती।
एक दिन पता नहीं उन्हें क्या सूझी, वे बडबडाते हुई आयीं कि कैसे ये लड़की इतना ज़रा-2 सा खा पाती है; न जाने इसके मुंह का छेद कितना छोटा है। मेरे सामने आकर बैठ गयीं, मेरे दोनों हाथ बलपूर्वक पकड़े और चम्मच में ढेर-2 सारा दाल-चावल भरकर ज़बरन मेरे मुंह में ठूंसने लगीं। मैं उतना एकसाथ नहीं खा सकती थी। मैंने उन्हें कहा कि मैं खुद खा लूंगी, वो नहीं मानीं; मैंने कहा कि मैं उगल दूँगी, उन्होंने अनसुना कर दिया। मैंने अपना मुँह पूरी ताक़त से बंद कर लिया लेकिन उन्होंने तब भी अपना उपक्रम जारी रखा। मैंने गुस्सा किया, विनती की, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं। मैं बहुत लाचार महसूस कर रही थी।
सभी इस तमाशे का पूरा मज़ा उठा रहे थे; सब हंस रहे थे। मैं भरपूर गुस्से में थी, मेरी आँखों में आंसू थे। वे पूरा खाना समाप्त करवा कर ही उठीं; एकदम विजयी भाव से। मैं एकदम हारी हुई सी बैठी थी। मेरा आत्म-सम्मान छिन्नभिन्न था। इस बात का भी दुःख था कि किसी ने एक बार भी क्यों नहीं कहा कि रहने दो, वो खा लेगी। खुद पर गुस्सा आ रहा था कि ऐसे कैसे कोई मेरे साथ ज़बरदस्ती कर सकता है? उसके बाद क्या घटा, ये उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, उल्लेखनीय बात ये है कि मैं उस घटना को कभी नहीं भूली। मुझे आज भी उस बात पर गुस्सा आता है। वह मानसपटल पर कहीं छपी हुई-सी है।
ये बस ज़बरदस्ती का एक छोटा-सा उदहारण भर है। बलात्कार इससे कहीं ज्यादा बड़ी घटना है। पीड़िता पर जो बीतती होगी, उसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। मन में हमेशा-2 के लिए छप जाने वाला वो गुस्सा, वो बेबसी, दुःख, वो सदमा किसी का भी जीवन हमेशा के लिए बदल देने के लिए काफी हैं। रही-सही क़सर हमारे समाज में व्याप्त दोहरे मापदंडों से पूरी हो जाती है। किसी के क्षणिक उन्माद की सजा कोई ज़िन्दगी भर क्यों भुगते? मैं बलात्कार के खिलाफ हूँ।

सपना और सच्चाई

कल रात देर से सोई थी। सुबह उठकर ऑफिस जाने की बिलकुल भी इच्छा न थी। मेरे ख्याल से हर किसी ने कभी न कभी ऐसा अनुभव ज़रूर किया होगा कि जब कहीं जाना हो और सोकर उठने की इच्छा बिलकुल भी न हो तो सपने में ही तैयार होने के उपक्रम होने लगते हैं और जागने के बाद यथार्थ-बोध होने पर गाड़ी भगानी पड़ती है।पहला अलार्म बजकर बंद हो चुका था। नींद हल्की-सी टूटकर तैयार होने की याद दिल चुकी थी। सोने की इच्छा मगर हर बात पर भारी थी। फिर भी मैं उठी, जल्दी-2 तैयार हुई; समय पर ऑफिस जो पहुँचना था। घर में हर कोई तैयार होकर भागने की जल्दी में था। मम्मी ने परांठे बनाकर रखे हुए थे जिन्हें फॉयल में लपेटकर मुझे टिफ़िन में रखना था। परांठे बहुत ही गरम थे, लेकिन मुझे जल्दी थी। ये देखकर मम्मी को एक पुरानी बात याद आ गयी और वो हंसने लगीं। उन्होंने मुझे बताया कि जब मैं छोटी थी तब भी अपना टिफ़िन खुद ही पैक करना चाहती थी। मैं अपने नन्हे-2 हाथों में परांठे पकड़ती थी जो बमुश्किल ही उनमें आते थे और यकायक पापा मुझसे पूछ देते, तुम्हारी बहन कहाँ है? और मैं हाथ फैलाकर कहती, "यहाँ!" (छोटी गोद में खिलाने लायक बहन की ओर इशारा करते हुए ) और मेरे हाथ से परांठे गिर जाते। फिर पापा खूब हँसते। मम्मी ने कहा, "तुम्हारे पापा फलां सीरियल वाले पति से कम हैं क्या?" अब तक हडबडाई हुई-सी मैं, कुछ पल को सुकून से खड़ी होकर ये बात सुनने लगी। मुझे मम्मी के मुँह से अपना बचपन जानना बड़ा ही भला लगता है।
खैर, मैं और मेरी बहन, हम दोनों ने अपने हाथों में रोल बनाकर आलू के परांठे पकड़े और तेज़ी से चलते बने। मेरे ऑफिस की ईमारत मेरे घर से दिखाई देती है। बहन का स्कूल भी पास ही है। हम पैदल जाते हैं और कुछ दूर तक साथ ही चलते हैं। मैं मम्मी की कही बात को सोचकर अभी तक मंद-2 मुस्कुरा रही हूँ। अपनी बहन को रास्ते में ये बात बताती हूँ। रास्ते में उसे ठोकर लगती है और उसका परांठा गिर जाता है। मैं उसे अपना आधा परांठा देती हूँ। वो मना करती है और मुझे ही उसे खाने को कहती है लेकिन मैं नहीं मानती; और फिर हम अपने-2 रास्ते निकल जाते हैं।
दूसरे अलार्म से मेरी नींद टूटती है। मेरे होठों पर मुस्कान है मगर ज्यादा देर तक नहीं। थोड़ी ही देर में वो मुस्कान गायब हो जाती है। मुझे अहसास होता है कि मैं अपने कमरे में अकेली हूँ। वहां घर का कोई नहीं। सुबह वाली कोई भागदौड़ नहीं। मैंने नाश्ता नहीं किया, मेरा टिफ़िन भी पैक नहीं है। मुझे याद आता है कि मैंने कभी अपना टिफ़िन खुद पैक नहीं किया, कि मम्मी सुबह कभी नाश्ते में परांठे नहीं देती थीं। मैं ऑफिस तो जाती हूँ मगर मेरी बहन स्कूल नहीं जाती। पापा ने वो शरारत कभी की ही नहीं। नाश्ता और टिफ़िन तो पी0जी0 वाले भैया तैयार करते हैं। फिर भी सबकुछ कितना असली था। कुछ देर तक तो यकीन ही करना मुश्किल हो रहा था। मैं वापस उसी दुनिया में होना चाहती थी मगर समय पर ऑफिस पहुँचना ज़रूरी था।
वो सपना चाहें जो भी था, मगर मेरे खुशमिजाज़ पापा, स्कूल जाती मेरी बहन की याद (बचपन में हम साथ स्कूल जाते थे: मैं, बहन, भाई), मम्मी का बचपन की बातें बताना, उनका टिफ़िन बनाना, सुबह सबका जल्दी-2 एकसाथ तैयार होना, ये सब असली हैं। जब तैयार होने उठी, तो अचानक बहुत ताज़ा महसूस कर रही थी। मन में रह-रहकर गुदगुदी-सी हो रही थी और अजीब-सी मायूसी भी।
वे सचमुच बड़े सुहाने दिन थे जो अब कभी नहीं लौटेंगे।