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Tuesday, October 26, 2010

अन्तर्द्वंद्व- इंसानियत से व्यावहारिकता(practicality) तक

खो गया है मेरा कुछ,
जिसे ढूँढूं कहाँ, नहीं पता|

एक नन्हा-सा सपना था,
जो लगता बिलकुल अपना था,
दिखते थे उसमे इंसान,
ह्रदय/चरित्र से बेहद धनवान,
आँख तो खुलनी ही थी,
इसमें भला थी क्या मेरी खता?
खो गया है....

एक मासूम-सी थी मुस्कान,
जो करती हर मुश्किल आसान,
दिल से निकलकर आती थी,
प्रायः हँसी में बदल जाती थी,
मेरी तरह वो भी सहम गयी,
चली गयी बताकर मुझे धता!
खो गया है....

पास में कुछ उम्मीदें थीं,
कुछ अपनी, कुछ अपनों से थीं,
कुछ परिभाषाएँ बदल गयीं,
कुछ आशाएँ पिघल गयीं,
सभी अगर होते हैं अकेले,
क्यूँ नहीं दिया एक बार बता?
खो गया है....

आत्मविश्वास चलता था साथ,
एक आग को लेकर अपने हाथ,
किसी कि ज़रुरत उसे न थी,
इतनी ताक़त खुद उसमें थी,
पर, सुना दी उसने अपनी व्यथा,
बेबस है वह, दिया उसने जता|
खो गया है....

मेरे अंतस का सन्नाटा ही,
है अब मेरे मन का राही,
जिजीविषा के खोने से पहले,
"वह" भी अपने मन की कह ले,
हृदयहीन होने का डर अब,
दिन-रात रहा है मुझे सता|
खो गया है....

पहले आत्मा या कि जीवन,
कौन जाएगा, यही विकट प्रश्न,
कोई लोक ऐसा भी होगा,
जहाँ न छल हो, न कोई धोखा,
शायद पा सकूँ वहाँ स्थान,
संतुष्ट करती ये विचारलता|
खो गया है....

Tuesday, October 19, 2010

बचपन और समझदारी (भाग-1)



कल रात मेरी अपनी फुफेरी बहन और फुफेरे भाई से बात हुई | आपस में बात करने का वही उत्साह-- बार-बार एक दूसरे से फ़ोन छीनना, एक-दूसरे को तंग करने की हरसंभव कोशिश, फ़ोन पर मौजूद शख्स का मज़ाक बनाने हेतु दूसरे का पीछे से आवाज़ लगाना, ढेर सारी शरारतें और उनसे भी ज़्यादा खिलखिलाहटें.. याद नहीं आता, आखिरी बार मैं इतनी खुश कब थी लेकिन यकीनन तब हम सब अपने-अपने घरों के निवासी थे |
२० मिनट के इस वार्तालाप ने मुझे उन सारे दिनों की याद दिला दी जो हमने साथ में बिताये थे | मुझे याद आ रहे हैं गर्मियों के वो दिन जब मेरे घर को अपनी ननिहाल कहने वाले ढेर सारे बच्चे वहाँ इकट्ठे हुआ करते थे, तब वहाँ सोने के लिए जगह की भी कमी हो जाया करती थी | हमउम्र बच्चों की अपनी अलग-अलग टोलियाँ बन जाया करती थीं | मेरी टोली में हम तीन लोग ही आते थे (सबसे बड़े, सबसे समझदार) |
दीदी के साथ मेरी अच्छी बनती थी, और भाई के साथ भी, समस्या सिर्फ इस बात की थी कि उनकी आपस में नहीं बनती थी | जब भी उनके बीच लड़ाई होती थी, जो कि अक्सर ही होती थी, मुझे अपनी तरफ लेने के लिए काफी खींचतान होती थी और अंत में दीदी अपने बड़े होने का फायदा उठाकर मुझे अपनी ओर कर ही लेती थीं |
उन दिनों का सच में बड़ी बेसब्री से इंतज़ार हुआ करता था क्यूंकि हमें पता होता था कि हम मिलेंगे | फिर, हम बड़े हो गए | पहले पढाई और बाद में नौकरियों की तलाश में दूर-दूर चले गए और सिर्फ इतना ही नहीं हुआ, हम व्यस्त भी होने लगे | एक बार जो घर से निकले तो फिर वापस ही नहीं लौट पाए | जीवन नीरस और अकेला-सा हो गया, हमें चिंताएँ सताने लगीं और ये सब इतने आराम से हुआ कि समझ में भी नहीं आया कि क्या पीछे छूट गया | फिर, कभी इतनी फुर्सत भी नहीं हुई कि इस बारे में कुछ सोच भी सकें, बस इतना महसूस होता रहा कि कुछ तो कमी है, इतनी व्यस्तता के बीच भी एक खालीपन है | गर्मियाँ.. वो तो अब सिर्फ लू और गर्म धूप का दूसरा नाम भर रह गयीं हैं |
बहुत समय के बाद हमारी इस तरह बात हुई है जैसे कुछ भी नहीं बदला | हम अब भी वही हैं-- बुद्धुओं की तरह झगड़ने वाले | अब ज़िक्र आने पर भले ही कुछ देर के लिए शर्मा जायें (क्यूंकि अब हम सचमुच समझदार जो हो गए हैं, या यूँ कहें कि समझदार दिखने का स्वांग-भर करते हैं ) लेकिन फिर वो सारे मासूम और बेवकूफी भरे खेल खेलने को तैयार हो जायेंगे जो बचपन में खेला करते थे क्यूंकि अन्दर से हम यही चाहते हैं, सवाल है बस, इकट्ठे होने का |

Monday, October 18, 2010

फ़रियाद


गहराती शाम के मंज़र में
कोई सुनहरी याद दे दो
ज़िन्दगी है बेरहम, तुम
एक हसीं मुलाक़ात दे दो|

कल के किस्सों-कहानियों में
ज़िक्र हो न शायद हमारा
भीड़ भरे इस शहर में
गुमनाम-सी एक रात दे दो|

तन्हाई से आजिज़ हूँ मैं
सन्नाटा है डरा रहा
ज़िन्दगी लंबा सफ़र है
कुछ कदम तक साथ दे दो|

किस तरफ जाना है अब
सूझता नहीं मुझे
मोड़ पर आकर रुकी हूँ
एक बार बस आवाज़ दे दो|

खूबसूरत-सी कुछ यादें हैं
संजोई हुई, आँखों में
बीते कल का तुमको वास्ता
मुझको मेरा आज दे दो|

ज़िन्दगी का एक हिस्सा
सुकून से है गुज़ारा
बाकी के लिए हो जो काफी
बस, कोई ऐसी बात दे दो|

आने वाले कल का कैसा
अनजाना-सा खौफ है
मूँद रखा है जिन्हें, उन
आँखों में एक ख्वाब दे दो|

फरियादों की इस कड़ी की
एक आखिरी अर्ज़ सुन लो
जो साझा हुए हमारे बीच
दिल के वो जज़्बात दे दो|

गर मांग लिया है हमने ज़्यादा
तो भी बिलकुल ग़म न करना
जो हो सके बस उतना ही, पर
कुछ की तो सौगात दे दो!