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Tuesday, June 14, 2011

बदलने और न बदलने का सिलसिला

जब आप एक लम्बे अरसे के लिए अपने शहर से दूर जाते हैं तो लोगों को आपसे एक अलग तरह की उम्मीद हो जाती है. कुछ उम्मीद करते हैं कि जब आप लौटेंगे तो बिलकुल भी नहीं बदले होंगे; और कुछ सोचते हैं कि आप बहुत कुछ नया सीखकर और पहले से बेहतर होकर लौटेंगे.
रोचक तथ्य तो ये है कि आप बदले हों या न बदले हों, हर कोई अपनी उम्मीद के मुताबिक कुछ अच्छे और कुछ बुरे लगने वाले बदलाव ढून्ढ ही लेता है. आपके जीवन में घटने वाली हर एक घटना आपमें कुछ न कुछ बदलती है, मगर ये बदलाव महत्त्वपूर्ण तब हो जाते हैं जब आप शहर बदलते हैं. इनमें से ज़्यादातर बदलाव लोगों को निराश करने वाले ही होते हैं और आमतौर पर खुली बाहों से स्वीकार नहीं किये जाते.
एक नयी दुनिया को टटोलकर वापस आने के बाद आपमें बदलाव आने स्वाभाविक हैं. जब आप पल-२ कुछ नया सीखते और खुद को बदलते रहते हैं, तो क्या एक लम्बे अरसे तक बाहर रहकर बदलावों से अछूते रहने की उम्मीद बेमानी नहीं? एक व्यक्ति को आपसे जो चाहिए वही दूसरे व्यक्ति को नहीं चाहिए. हर किसी की भावनाएं आहत हो जाती हैं. ये बिलकुल उसी तरह है जैसे पिता परदेस जायें, आपकी फरमाइशों की एक लम्बी फेहरिस्त हाथ में लिए. वहां के बाज़ार से किसी कारणवश (अनुपलब्धता या पैसों की कमी इत्यादि) आपका मनचाहा सामन न ला पाएं, मगर उसकी जगह कुछ ऐसा खरीद लें जो उन्हें लगे कि घर ले जाऊंगा तो सबको भायेगा. कुछ लोग तो इतने ज्यादा प्रिय होते हैं कि उनके लिए कुछ विशिष्ट लाने की चाह में उपयुक्त सामान उन्हें सारे बाज़ार में नहीं मिलता. घर वापस जाने पर सारे नाराज़ हैं, कोई खुश नहीं, उन्हें लगता है कि उन्हीं की फरमाइशों के साथ समझौता किया गया है और वे महत्त्वपूर्ण नहीं. कोई ये पूछना ज़रूरी नहीं समझता कि पिता खुद अपने लिए क्या लाये हैं. शायद अपने लिए कुछ भी नहीं.
जब बदलाव लाना खुद आपके हाथ में नहीं तो उन्हें 'अन डू' करना भला आपके हाथ में कैसे होगा? बदलाव तो बिना बताये आ जाते हैं. कुछ सवाल जिनका सामना ऐसी परिस्थितियों में लगभग हर किसी को करना होता है:
* नए दोस्त बन गए तो पुराने दोस्तों की कोई हैसियत ही नहीं?
* ज्यादा कमा रहे हो तो इस कदर घमंड में रहोगे?
दो कारण समझ में आते हैं:
* जब आप पल-२ आ रहे बदलावों का पुलिंदा लेकर वापस जाते हैं तो उसे एकदम से स्वीकार लेना आसान नहीं होता.
* हर कोई आपको पूरी तरह नहीं जानता. आपके व्यक्तित्व का कोई न कोई भाग किसी न किसी से छिपा हुआ रहता है जिसका 'डाटाबेस' पूरी तरह आपके दिमाग में होता है. लम्बा समय बीत जाने पर आपको याद नहीं रहता कि किसे कौन-सा भाग दिखाना है, और यहाँ नज़र आता है उन्हें आपका नयापन.

'तुम बहुत बदल गए हो/अब तुम पहले जैसे नहीं रहे' ये बड़े ही नकारात्मक वाक्य हैं जो कहने वाले से ज्यादा सुनने वाले को चोट पहुंचाते हैं, उन्हें परायेपन का एहसास कराते हैं. अगर आप खुद को ऐसे किसी व्यक्ति का करीबी कहते हैं तो उसे समझिये, समझाइये, स्वीकारिये; तीखी टिप्पणी मत कीजिये. बदलाव के कारण को जानने की कोशिश कीजिये. क्या पता, कल तक जो आपके सामने बिना कहे अपना दिल खोलकर रख देता था, आज उसके आंसू सूख चुके हों; कल तक जो हर मौके पर आपके साथ खड़ा था, वो अपनी तमाम बड़ी-छोटी जीती-हारी लड़ाइयाँ अकेले लड़कर आया हो. क्या पता... 

Friday, June 10, 2011

मेरी पहली कहानी

याद नहीं ये कब की बात है, लेकिन तब मैं बहुत छोटी थी. आज एक मित्र ने पूछा तो याद हो आया.. नया-२ ही लिखना और पढना सीखा था. कोर्स की किताबों में तो उतनी दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन दीदी (बुआ की बेटी) के लिए मेरे चाचा कॉमिक्स किराये पर लाते थे. वो बड़ी थीं तो ज़ाहिर सी बात है कि मुझसे ज्यादा ही पढ़ लेती थीं. हम दोनों टूटा-फूटा ही सही, मगर खुद से पढ़ते थे. इंटेरेस्ट जाग गया, पढने में ही नहीं, कहानियों में भी. अब मेरे लिए भी कॉमिक लायी जाने लगी. कोई और मुझे पढ़कर सुनाये, मुझे अच्छा नहीं लगता था; सो, कुछ ज्यादा ही जल्दी अक्षरों को मिला-२ कर लिखना और पढना सीख गयी थी.
यूं भी पापा बचपन से ही रात में कहानियां सुनाकर सुलाते थे या यूं कहूँ  कि कहानियां सुने बगैर मैं सोती ही नहीं थी. उनका स्टॉक खाली हो जाने पर पुरानी कहानियां दोबारा सुन लेती थी, मगर कभी छोडती नहीं थी. कवितायेँ तो किताब से याद करनी होती थीं इसलिए अच्छी नहीं लगती थीं. शायद यही कारण है कि मेरी पहली रचना एक कहानी थी.
सीधी सी बात है, जो भी पढ़ती या सुनती थी, मेरी कहानी भी उससे ही प्रेरित थी. कहानियों में आम तौर पर तिलिस्मी कुएं या पेड़ इत्यादि का ज़िक्र होता था. मैं कुछ अलग लिखना चाहती थी, जिससे कोई उसे नक़ल न कहे. मैंने सोचा, क्यूँ नहीं एक जादुई सड़क? उस वक़्त मैं पापा की दूकान पर बैठी थी, वहां से सड़क और उसपर आते-जाते लोगों को देखा करती थी. स्कूल में पेंसिल से लिखना होता था, पेन से तो बड़े लोग लिखते थे; सो, हर बच्चे की तरह मुझे भी पेन से लिखने का बड़ा मन होता था. दूकान में उस समय चाचा थे. मैं उनका काम न बढाऊँ इसलिए उन्होंने मुझे कागज़ और पेन दे दिया था.
खैर, मैंने सोचना शुरू किया. सड़क को जादुई बनाने के पीछे भी एक लॉजिक था: सड़क पर अमूमन लोगों को पड़ी हुई चीज़ें मिल जाया करती हैं; तो, मेरी सड़क जादुई थी. लोग उससे जो भी मांगते थे, वो उन्हें देती थी. लोग भी उससे बहुत प्यार करते थे, मगर उसकी सफाई का ध्यान नहीं रखते थे. कुछ भी खाया-पिया, और कूड़ा सड़क पर. एक दिन उस सड़क की जादुई शक्तियां चली गयीं. लोग परेशान हो उठे. वो जो भी मांगते, उन्हें मिलता ही नहीं. उन्होंने सड़क से पूछा. सड़क ने बताया कि वो इतनी गंदी रहती है कि अब किसी की इच्छा को पूरी करने के लायक नहीं बची. लोग बड़े शर्मिंदा हुए. शायद माफी भी मांगी हो. उन्होंने न सिर्फ सड़क को साफ़ किया, बल्कि आगे भी उसकी सफाई का बड़ा ध्यान रखने लगे! तो इस तरह, मेरी कहानी में एक शिक्षा भी थी, साफ़-सफाई रखने की. स्कूल में जो बातें सिखाई जाती हैं, वो कहीं न कहीं दिख ही जाती हैं, क्यूंकि सिर्फ बचपन में ही तो हम उनका पालन करते हैं.
खैर, उस कागज़ में मैंने अपनी गन्दी-सी हस्तलिपि में और बड़ी ही काट-पीट करके लिखा था, मगर जब चाचा को पढाया तो उन्होंने बड़ी ही तारीफ की. हाँ, मुझे 'चीज़' लिखना नहीं आ रहा था, उसे मैंने हर जगह 'जीच' लिखा था. चाचा ने उसे सही कराया और मेरी नज़र में  वो बड़े ज्ञानी और हीरो हो गए! मैंने वो कहानी दो पेज में लिखी थी और नाम था शायद 'सड़क'.
चाचा की हौसला अफजाई से खुश होकर फिर मैंने वो घर में सबको दिखाई. सबने बहुत तारीफ की. मैं इतनी ज्यादा खुश हो गयी कि मैंने वो गन्दा सा पेज कमरे की दीवार पर उतनी ऊंचाई पर जहाँ तक मैं पहुँच सकती थी, चिपका दिया; जिससे आते-जाते हर समय लोग उसे देखें और मेरी तारीफ करें. २ दिन तक वो दीवार पर उपेक्षित-सा लगा रहा, और उसके बाद कमरे की सफाई के दौरान कचरे में फिंक गया! :(
आज ये सब याद आया, तो बड़ी देर तक हंसती रही. आप कितनी देर हँसेंगे?