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Monday, April 25, 2011

एक बार जब मैं भागी थी...


ये तब की बात है जब है जब खुशकिस्मती या कहिये कि बदकिस्मती से मुझे लेकर दो धुरंधर कम्पनियों में खींचतान मची हुई थी और इस खींचतान में मेरे कॉलेज के भी कूद पड़ने का पूरा अंदेशा था. तब मैं कुछ समय के लिए underground हो जाना चाहती थी. मैंने फैसला कर लिया था अपनी तत्कालीन कंपनी को छोड़ने का मगर शायद ये उतना आसान न था. सारी तरकीबें बेकार हो रही थीं.
 जब गांधीवाद से कुछ हल न हुआ तो मैंने बागी हो जाने का फैसला किया. लंच टाइम से थोडा ही पहले कंपनी गयी, सिस्टम खोला, अपनी निजी files डिलीट कीं और फिर बड़े शान से सबके सामने सामान उठाकर निकल पड़ी. वो अलग बात है कि मेरे मन के चोर में तब भी इतनी हिम्मत न थी कि लंच टाइम से अलग किसी वक़्त पर निकल सकती.
खैर, अपनी सीट से लेकर लिफ्ट तक, लिफ्ट से बिल्डिंग के बाहर तक, मैं बिलकुल सांस रोके निकली. एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा. डर था कि कहीं कोई आवाज़ देकर न रोक ले. तब फिर मैं क्या बोलूंगी? बाहर आकर सीधे रिक्शा किया, वहां से एक ऑटो, और फिर एक और ऑटो. अपने ठिकाने तक बिना किसी रुकावट पहुँच गयी. मगर इस पूरी भागदौड़ के दौरान मैं अकेली न थी. कोई और भी था मेरे साथ.. सामने न सही, फ़ोन पर! मेरा एक मित्र, जिसकी संयोग से कॉल आ गयी थी और फिर उसे इतना मज़ा आया कि पूरी घटना के दौरान उसे एक पल भी फ़ोन न रखा और पल-२ की खबर ली. मेरी भी हिम्मत इससे थोड़ी बढ़ गयी. 
बातों-२ में ही उसने बताया कि उसे उस रात की ट्रेन से घर निकलना है और उसकी ट्रेन कानपुर होते हुए जाएगी. जाट आन्दोलन के चलते मेरी ट्रेन वैसे भी रद्द हो गयी थी. आनन-फानन में मैंने भी साथ चलने की पेशकश कर दी; वो भी तब जबकि उसकी खुद की टिकट confirm न थी. ट्रेन के छूटने में अभी काफी वक़्त था. मैंने खाया-पीया, कुछ देर सुस्ताया और फिर पैकिंग शुरू कर दी. शाम को स्टेशन के लिए निकली पर समय से पहुँच न सकी. संयोग तो देखिये कि ट्रेन खुद भी समय पर स्टेशन न पहुँच सकी! खैर, मैं जैसे-तैसे कानपुर पहुंची और फिर वहां से लखनऊ. घर वालों को बिना कोई सूचना दिए मैं घर पहुंची थी. उनकी ख़ुशी तो देखते ही बनती थी; होली का त्यौहार जो था. 
वो पूरा समय काफी हलचल भरा था. सब कुछ तो यहाँ लिखा नहीं जा सकता मगर हाँ, इस पोस्ट को लिखने का कारण बताना तो बनता है. उस दिन मैं भागने के मज़े को जान पायी थी. जान पाई कि लोग भागकर शादी क्यों करते हैं; आखिर मैं भी तो भागी थी. उस दिन मैं भागी थी.. जी हाँ! अपने उस दोस्त के साथ, पहले फ़ोन पर और फिर सचमुच! आँखों के आगे सोचा न था, जब वे मेट, उड़ान समेत न जाने कितनी ही फिल्मों के दृश्य तैर गए थे.

Sunday, April 17, 2011

एक बात


आज अकेले सड़क पार करते हुए एक ख्याल आकर टकरा गया- मेरे दोस्त मुझसे कहते थे: "तुम अकेले सड़क पार करना कब सीखोगी?" उनमें से कुछ लोगों के लिए ये कहकर भूल जाने वाली बात होती थी तो कुछ लोग इसे सीधे मेरी आत्मनिर्भरता से जोड़ते थे; उन्हें लगता था कि चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो, जब तक बहुत ज़रूरी न हो, किसीसे मदद नहीं मांगनी चाहिए | उन लोगों के लिए मेरी दलील ये होती थी कि चाहे बात कितनी मामूली क्यों न हो, जब तक किसी का हाथ और साथ मिल रहा है, नहीं छोड़ना चाहिए | ये एक बहाना भर हुआ करता था, उस समय खुद के बचाव के लिए |
                  आज ऐसा लगा कि तब कितनी गहरी बात कह गयी थी | आत्मनिर्भरता ज़रूरी है लेकिन हर एक छोटी बात पर उसका ढोल पीटना बिलकुल ज़रूरी नहीं | इंसान को सिर्फ इतना मालूम होना चाहिए कि वह काबिल है, समर्थ है और खुद पर भरोसा होना चाहिए | आत्मनिर्भरता का ज्यादा दिखावा आपको अपनों से दूर कर देता है, कुछ छोटे ही सही, मगर अनमोल पल छीन लेता है |
                   अकेले सड़क पार करने से मैं आज भी उतना ही डरती हूँ जितना पहले डरती थी लेकिन यह पहले भी मालूम था और आज भी मालूम है कि कोई साथ नहीं होगा तो मैं खुद भी कर लूंगी और किया है | कभी किसी राह चलते से मदद नहीं मांगी, हाँ, दोस्त-यार साथ हुए तो कभी मौका भी नहीं छोड़ा और आज भी जबकि यह रोज़ की आदतों में से है, कभी मौका मिला तो नहीं छोडूंगी | वो झिडकियां और हिदायतें कहीं न कहीं अच्छी लगती हैं और अब आसानी से मिलती भी नहीं; न ही अब साथ मिलता है |