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Thursday, September 12, 2013

अन्त्याक्षरी

कभी सोचा नहीं था कि इसके बारे में कुछ लिखूँगी: बचपन में सबसे आमतौर पर खेला जाने वाला खेल जब लोग बहुत हों और उत्पात मचाना गैर मुनासिब। शायद यही वजह है कि इसकी शुरुआत "बैठे-२ थक गए हैं, करना है कुछ काम; शुरू करो अन्त्याक्षरी लेकर प्रभु/हरि का नाम!" बोलकर करते हैं। ज़ाहिर है, चूंकि यह अन्त्याक्षरी (अंत के अक्षर से खेला जाने वाला खेल) है, तो पहला गाना 'म' अक्षर से शुरू करना होता है। एक ऐसा खेल जिसमें बच्चों के साथ-२ बड़े भी उतना ही चाव दिखाते हैं।
मेरे परिवार में सभी को घूमने-फिरने का बड़ा शौक रहा है। सड़क, कार, लम्बा सफ़र और ढेरों गाने, ड्राईवर का भी उतना ही चाव दिखाना, बड़ों का खेल में सम्मिलित हो जाना (कभी फैसला करके अपनी-२ टीम निर्धारित कर लेना और कभी अचानक से ही किसी की ओर से भी गाने लग जाना), खड़ूस रिश्तेदारों का कोमल पक्ष बाहर आ जाना, हार-जीत और किसी की बेईमानी या गलत गाना पकड़ लेने या हारते-हारते अचानक से १ से १० की गिनती के दौरान बच जाने का रोमांच, सफ़र का यूं कट जाना और परिणाम से परे इस सब का एक सुनहरी याद में तब्दील होकर मन में दर्ज हो जाना; शायद ये सब सिर्फ मेरे अनुभव नहीं हैं, इनसे और भी लोग इत्तेफाक रखते होंगे।
बीती बातों को ख़ास तवज्जो देने की वजह है मेरी हालिया 'रोड ट्रिप'। परिवार के साथ तो ऐसी कुछ योजना लम्बे समय से नहीं बनी; बहरहाल एक सहकर्मी की शादी में शिरकत करने के लिए हम कुछ लोग चले। सबको नहीं जानती थी इसलिए उनकी बातों में शामिल नहीं हो पा रही थी।  सफ़र थोड़ा लम्बा था, सो थोड़ी देर के बाद अन्त्याक्षरी खेलने का सुझाव आया। लड़कियों और लड़कों की अलग-२ टीम बनीं। चूंकि अब आजकल कोई खेल खेलता नहीं, तो घिसे-पिटे गानों के अलावा किसी को और कुछ याद नहीं आ रहा था। मम्मी-पापा के साथ बचपन में खूब अन्त्याक्षरी खेलने के कारण मुझे उनके खजाने के काफी गाने पता थे। घर के सबसे बड़े बच्चे को होने वाले कई फायदों में से ये भी एक था। हर समय के गानों को उसी समय के लोगों को बड़े उत्साह से गाते सुनने का अपना अलग ही मज़ा था। ये अलग बात है कि हम बच्चों की कोशिश हमेशा नए से नए गाने गाने की होती थी। खैर, कुछ देर तक सर्दी-ज़ुकाम के कारण गला खराब होने और इस डर से भी कि उन पुराने गानों में से शायद ही किसी को कुछ पता होगा, मैं चुप रही; लेकिन जल्दी ही टीम को हारने से बचाने का दबाव आने लगा। आखिर, फिर जो भी याद आने लगा, हम गाने लगे। कुछ पुराने गाने हमारी पीढ़ी के लोगों में भी काफी लोकप्रिय हैं, सबको न सिर्फ उनके बोल पता थे, सबका एक सुर में उन्हें गाना काफी सुखद था। सचमुच, पुराने गानों में अलग ही बात है।
शादी का मज़ा अपनी जगह था लेकिन सैंकड़ों किलोमीटर का फासला गाने बजाने, गिनतियाँ गिनने और अपने मनमुताबिक नए-२ नियम बनाने में जो कटा वो किसी और मज़े से बढ़कर था। अपने गले की हालत और सारी सकुचाहट, मैं सब भूल गयी। फिर कोई अजनबी नहीं था। उस समय का रोमांच और उत्साह वापस आने के बाद भी काफी समय तक बना रहा।
पुरानी भूली हुई कितनी ही चीज़ों की तरह जब इस घटना ने यादों के दरवाज़े पर दस्तक दी तो मुझे एहसास हुआ कि आज मन बहलाने को कितनी ही चीज़ें होने के बावजूद मैंने इन छोटी-२ बातों को कितना 'मिस' किया। चाहे वो मेरी नानी का घर रहा हो जब गर्मियों की छुट्टियों के दौरान वहां जुटे सारे लोगों ने शाम को आँगन या छत में मन भर कर गाने गाये तब तक जब तक कि एक टीम के लोग पूरी तरह सो नहीं गए या हार नहीं गए (जीतने का जूनून इतना था कि एक-२ करके सारे लोग सो जाते थे लेकिन हम बच्चे शाम से लेकर रात भर यानी कि भोर होने तक दबी-२ आवाज़ में गाने गाते रहते थे लेकिन हार नहीं मानते थे) या फिर मेरा खुद का घर जहां बिजली चले जाने पर दुनिया भर को कोसते हुए घर के सारे लोग छत पर चटाई और फोल्डिंग लेकर इकठ्ठा हो जाते थे और 'Zee T.V.' पर आने वाले अन्नू कपूर के शो अन्त्याक्षरी की तर्ज़ पर दीवाने-परवाने-मस्ताने टीम बनाकर गाने गाते थे (यहाँ पर मामला थोड़ा अलग था, एक बार खेल में शामिल हो जाने पर गेम पूरी तरह बड़ों का हो जाता था और हम बच्चे किनारे! हारने वाले के लिए पेनल्टी निर्धारित होती थी लेकिन बिजली आते ही सभा बिना किसी फैसले के भंग हो जाती थी)। कई बार तो ऐसा होता था कि शुरुआत सिर्फ हम ममेरे-फुफेरे भाई-बहन आपस में करते थे लेकिन मेरा फुफेरा भाई जो मुझसे उम्र में थोड़ा छोटा और गाने में कमज़ोर था, निरमा, रसना, लाइफबॉय और पता नहीं क्या-२ विज्ञापन गाने शुरू कर देता था और उन्हें सही बताने की ज़िद में अड़ जाता था। १०-१२ हारियाँ हो जाने के बाद वो रोते-२ किसी बड़े के पास जाता था और उनकी मदद मांगता था। उसकी ख़ुशी के लिए खेल फिर से शुरू होता था।  लोग धीरे-२ करके खुद से ही या फिर हमारे कहने पर जुड़ते जाते थे और देखते ही देखते हमारी टीमों में घर के सारे धुरंधर शामिल हो जाते थे।
अब दुनिया ज्यादा विकसित है, लोगों में एकता नहीं, बिजली जाती नहीं, साथ बैठने का समय नहीं और हम भी अब मासूम से बच्चे नहीं। समय के साथ-२ सब बदल गया है, कुछ भी सरल नहीं है, हम अपनी व्यस्तताओं के बीच कदमताल करते रहते हैं, फिर भी हम सौभाग्यशाली हैं, हमारी यादों का खजाना भरा-पूरा है। हमने जो समय देखा वो शायद हमारे बाद कोई नहीं देखेगा। हम कम से कम उस कसक को महसूस कर सकते हैं जो शायद हमारे बाद किसी के दिल में टीस बनकर चुभेगी भी नहीं।

फिलहाल तो होंठों पर आ रहा है: 'दिल ढूँढता, है फिर वही, फुर्सत के रात-दिन… '

Friday, July 12, 2013

भीगा-भीगा सा

यूँ तो इस बार बारिश का मौसम पहाड़ी इलाकों के लिए काफी त्रासद रहा, लेकिन फिर भी, देश के कई हिस्से ऐसे हैं जहाँ पर मेरे जैसे कई लोग अब भी अच्छी बारिश के लिए तरस रहे हैं। मैं बात कर रही हूँ गुडगाँव की। मुंबई जैसे शहरों की बारिश पर काफी कुछ लिखा गया है, मगर गुडगाँव नया है। इस पर प्रकाश डालूंगी थोड़ी देर में।

हाँ तो, मैं जानती हूँ कि बारिश के लिए कुछ ज्यादा ही जल्दी बेसब्री दिखा रही हूँ, अभी तो जुलाई की शुरुआत भर है। ये बेसब्री बिलकुल वैसी ही है जैसे गर्मियों का आभास मिलते ही, "अब आम आयेंगे", सोच कर खुश हो जाना, जबकि मेरी पसंदीदा दशहरी तो गर्मियों के बिलकुल अंत में आती है। मेरे ख्याल से अब समझना आसान हो गया होगा।

गर्मियां मुझे सिर्फ आम, लीची और छुट्टियों की वजह से ही सुहाती थीं, जिसमें से छुट्टियों का योगदान ही सबसे ऊपर होता था। अब तो वो बात नहीं रही। जाड़े कभी अच्छे लगे ही नहीं। बरसात हमेशा से अच्छी लगती रही है, बिना कोई शर्त।

अब आते हैं गुडगाँव पर। ज्यादा समय नहीं हुआ यहाँ पर रहते, मगर मैंने देखा है कि जब सभी जगह अच्छी बारिश हो रही होती है, तब यहाँ नहीं होती, और जब यहाँ होती है तब और कहीं नहीं होती। इसमें लोगों की प्रार्थनाओं का बहुत बड़ा हाथ है। अमूमन यहाँ पर बरसात आने से पहले सडकें खोद दी जाती हैं, जैसे कि पहले ही बहुत अच्छी थीं और ऊपर से पानी निकासी का इतना उत्तम प्रबंध कि सैलाब लाने के लिए ५ मिनट या शायद उससे भी कम की बारिश ही काफी हो। निरंतर चलते रहने वाले निर्माण-कार्य के कारण यहाँ सालभर इतनी धूल-मिटटी होती है कि किसी को भी ये सोचकर हैरानी नहीं होती कि बारिश के बाद इतनी सारी कीचड़ आती कहाँ से है। फिर इतनी गाड़ियाँ और सभी को कहीं न कहें जाने की इतनी जल्दी कि कोई कहीं भी न पहुंचे। यही कारण है कि लोग जून के महीने से ही बारिश न होने की प्रार्थना करना शुरू कर देते हैं। बसावट के हिसाब से यह शहर घना बसा हुआ है, तो इतने लोगों की प्रार्थनाएं तो कबूल होनी ही हैं। आखिर, बारिश कितनी अच्छी सही, कीचड़-जमाव-ट्रैफिक किसे पसंद है? फिर मच्छर और कीड़े-मकोड़े भी तो हैं! बाकी दिन भगवान् को इतने मन से याद नहीं किया जाता, किसी के पास इतना समय नहीं, सो, तब वो जो भी चाहें कर सकते हैं, हम बस उन्हें कोस कर आगे बढ़ जायेंगे।
नोट: मैंने सचमुच देखा है लोगों को प्रार्थना करते!

अब  चूंकि बारिश का होना यहाँ पर बड़ी घटना है, और लोग अधिकतर काम के बोझ तले दबे रहने वाले स्पेशल क्लास मजदूर हैं, सो, आसमान का रंग ज़रा भी बदलने पर लोग बड़े अचरज से कांच की खिड़की के उस पार से, झुण्ड बनाकर आसमान को निहारा करते हैं। इसे ५ मिनट का कॉफ़ी ब्रेक या सिगरेट ब्रेक समझ सकते हैं। फिर, गुडगाँव गुडगाँव है (The city of monsoon prayers), आसमान का रंग चाहे दिन के समय एकदम काला ही हो जाये, लेकिन वो बारिश होने की गारंटी बिलकुल नहीं है: कभी कुछ भी नहीं, कभी मामूली छींटे और बौछार और कभी ३० सेकंड की तेज़ बारिश और उसके बाद कुछ भी नहीं।

फिलहाल, यहाँ सबकुछ भीगा-२ सा है, भले ही गीला नहीं। इस मौसम में तबीयत भरकर कम से कम एक बार बारिश में नहाने की इच्छा तो है ही। कल बहुत दिनों बाद एक अच्छी फिल्म देखी। जब सिनेमाहाल से बहार निकली तो संतुष्ट थी। इसके बाद पिताजी से बात हुई, जानती हूँ कि वो परेशान थे, वजह कहीं न कहीं मैं थी, फिर भी, उन्होंने कहा कि मुझे किसी की भी कोई परवाह नहीं होनी चाहिए, पहले खुद की ख़ुशी, उसके बाद दुनिया। फिर उन्होंने वो कहा, जिसे सुनने के लिए दुनिया का हर बच्चा लालायित रहता है। उन्होंने कहा, "मेरी बेटी किसी के आगे क्यूँ झुक जाये, वो किसी से कम है क्या?" मुझे पता था कि उन्हें मुझपर गर्व है लेकिन कह देने की बात ही अपनेआप में एक है। महसूस कर पा रही हूँ खुद को, भीगा-भीगा सा।

Friday, April 05, 2013

Stranger (A 55 fiction)




It was a 'sudden' 'plan'. She had to take a sick leave from office and rush to her hometown. It was supposed to be just meeting a guy but it turned out to be her engagement.
When leaving, her mother, as always, asked her not to befriend any stranger during the journey. She only smiled.

Thursday, March 07, 2013

बात निकली

बहुत दिन से कलम से कोई कविता न निकली,
बात ज़ुबां से तो निकली मगर दिल से न निकली।

जाने कब से अरमान सजाये हुए बैठी थी ,
वो दुल्हन जो आज सज-संवरकर न निकली।

बाज़ार-ए-दर्द में मिलीं अच्छी कीमतें,
दिल से मेरे जब एक आह भी न निकली।

वो आये मगर हड़बड़ी में इस कदर,
एक याद भी उनकी ज़ेहन से न निकली।

देखा है जबसे बेवफाई का मंज़र,
न सांस ही निकली, जाँ भी न निकली।

टुकड़ा-टुकड़ा कर समेटी है ज़िन्दगी,
कुछ किरचियाँ न निकलीं, फांसें न निकलीं।

वो था एक छोटा और मामूली किस्सा,
अब तक मन से जिसकी याद न निकली।

अकेलेपन का वो दौर भी अजीब था,
साथ मेरे तब मेरी परछाईं न निकली।

जानते थे बहुत पुराने रिश्तों की कीमत,
जिनकी नश्तर-सी बात ज़रा ठहरकर न निकली।


Wednesday, February 20, 2013

साइकिल से जुड़ी कुछ यादें


स्कूली पढाई के दौरान आने वाले दो महत्त्वपूर्ण पड़ाव यानि कि हाई स्कूल और इंटरमीडिएट के दौरान मैं एक ऐसे स्कूल में पढ़ती थी जहाँ पढाई के आलावा विद्यार्थियों की और किसी गतिविधि पर ध्यान नहीं दिया जाता था। शायद 'हतोत्साहित करना' कहना ज्यादा उपयुक्त रहेगा। इस बारे में हम कभी और बात करेंगे।

हम सुबह से लेकर शाम तक स्कूल में होते थे और बस्तों का वज़न तो पूछिए ही मत! साइकिल के कैरियर को एक सीमा तक ही खींचा जा सकता था, उससे ज्यादा खींचने की कोशिश करने से वो ख़राब हो चुका था। बस्ता फिट जो नहीं होता था। उसे जैसे तैसे फंसा के मैं स्कूल जाती थी।

कैरियर ख़राब होने की वजह से बस्ता जब-तब एक ओर को लटक जाता था, (गिर नहीं पाता था क्यूंकि बड़ी तिकड़मों के साथ फंसाया गया होता था) और उसके वज़न से साइकिल का संतुलन बिगड़ जाता था। मैं साइकिल छोड़कर किनारे खड़ी हो जाती थी। आखिर, साइकिल प्यारी थी, मगर जान से ज्यादा नहीं। (वो दूसरी आ सकती थी, मगर मैं नहीं!) फिर, बस्ते के साथ साइकिल मुझसे कभी नहीं उठती थी। सड़क पर कोई न कोई मदद करने आ ही जाता था और तब फिर स्कूल की ओर जाया जाता था। लगभग रोज़ ही ऐसा होता था।

थोड़ा और पीछे आते हैं। तब मैं साइकिल चलाना सीख ही रही थी, अपने घर के पास वाले पार्क में। वहां और लोग भी आते थे क्रिकेट खेलने। मुझे आज भी याद है कि एक दिन साइकिल चलाते हुए मैं जिस दिशा में जा रही थी, एक लड़का फ़ील्डिंग करते हुए उसी तरफ भागा जा रहा था। मैं उसे 'हटो-हटो' कहती रह गयी और वही हुआ जिसका डर था। ज़मीन पर पहले वो लड़का गिरा, फिर उसके ऊपर मेरी साइकिल, और साइकिल के ऊपर मैं। उसने कराहते हुए मुझसे पूछा, "आपको कहीं चोट तो नहीं लगी?" और मैंने भी जवाब दिया, "नहीं!"

सुबह-२ साइकिल चलाते हुए गोमती किनारे जाना, यह एक ऐसा सुखद अनुभव होता था जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। सबकी तरह मैं भी अनगिनत बार गिरी, न जाने कितनी चोटें खायीं।

उस साइकिल के बारे में जो मेरी आखिरी याद है, वो है उसका चोरी होना।

Tuesday, January 15, 2013

मैं बलात्कार के खिलाफ़ क्यों हूँ?

दुनिया में कई चीज़ें ऐसी हैं जिन्हें मैं बर्दाश्त कर ही नहीं सकती। बलात्कार, बलात्कारी, किसी भी तरह का शारीरिक शोषण, महिलाओं की इज्ज़त न करना, छेड़छाड़ एवं इन्हें जायज़ ठहराने वाले या शह देने वाले बुद्धिहीन लोग ऐसी ही चीज़ों में शुमार हैं।
अखबारों में आएदिन तमाम खबरें छपती रहती हैं मगर बलात्कार की घटनाएँ मुझे मानसिक तौर पर हिलाकर रख देती हैं। कई कारण हैं इसके पीछे; यह भी कि मैं खुद एक महिला हूँ। मैं और बातों पर नहीं जाऊँगी, बस, अपने बचपन की एक याद साझा करना चाहूँगी।
मैं तब स्कूल में पढ़ती थी। हमारे घर में बर्तन मांजने एक महरी आती हैं। चूँकि वो काफी पुरानी हैं इसलिए मम्मी की खासी चहेती भी हैं। मैं खाना खाने में काफी समय लेती हूँ। स्कूल से आने में मुझे काफी देर हो जाया करती थी इसलिए वो जब भी घर आतीं, मैं खाना खा ही रही होती थी। अमूमन उनके काम निपटाने तक मैं खाना खा ही रही होती थी तो मेरे कुछ बर्तन बचे रह जाते थे। इसके लिए वो जब-तब मुझे कुछ कहतीं, मगर मेरी लाख कोशिशों के बावजूद मैं खाना समय पर ख़त्म न कर पाती। कभी एक कटोरी-चम्मच या कभी एक प्लेट बची रह ही जाती।
एक दिन पता नहीं उन्हें क्या सूझी, वे बडबडाते हुई आयीं कि कैसे ये लड़की इतना ज़रा-2 सा खा पाती है; न जाने इसके मुंह का छेद कितना छोटा है। मेरे सामने आकर बैठ गयीं, मेरे दोनों हाथ बलपूर्वक पकड़े और चम्मच में ढेर-2 सारा दाल-चावल भरकर ज़बरन मेरे मुंह में ठूंसने लगीं। मैं उतना एकसाथ नहीं खा सकती थी। मैंने उन्हें कहा कि मैं खुद खा लूंगी, वो नहीं मानीं; मैंने कहा कि मैं उगल दूँगी, उन्होंने अनसुना कर दिया। मैंने अपना मुँह पूरी ताक़त से बंद कर लिया लेकिन उन्होंने तब भी अपना उपक्रम जारी रखा। मैंने गुस्सा किया, विनती की, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं। मैं बहुत लाचार महसूस कर रही थी।
सभी इस तमाशे का पूरा मज़ा उठा रहे थे; सब हंस रहे थे। मैं भरपूर गुस्से में थी, मेरी आँखों में आंसू थे। वे पूरा खाना समाप्त करवा कर ही उठीं; एकदम विजयी भाव से। मैं एकदम हारी हुई सी बैठी थी। मेरा आत्म-सम्मान छिन्नभिन्न था। इस बात का भी दुःख था कि किसी ने एक बार भी क्यों नहीं कहा कि रहने दो, वो खा लेगी। खुद पर गुस्सा आ रहा था कि ऐसे कैसे कोई मेरे साथ ज़बरदस्ती कर सकता है? उसके बाद क्या घटा, ये उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, उल्लेखनीय बात ये है कि मैं उस घटना को कभी नहीं भूली। मुझे आज भी उस बात पर गुस्सा आता है। वह मानसपटल पर कहीं छपी हुई-सी है।
ये बस ज़बरदस्ती का एक छोटा-सा उदहारण भर है। बलात्कार इससे कहीं ज्यादा बड़ी घटना है। पीड़िता पर जो बीतती होगी, उसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। मन में हमेशा-2 के लिए छप जाने वाला वो गुस्सा, वो बेबसी, दुःख, वो सदमा किसी का भी जीवन हमेशा के लिए बदल देने के लिए काफी हैं। रही-सही क़सर हमारे समाज में व्याप्त दोहरे मापदंडों से पूरी हो जाती है। किसी के क्षणिक उन्माद की सजा कोई ज़िन्दगी भर क्यों भुगते? मैं बलात्कार के खिलाफ हूँ।

सपना और सच्चाई

कल रात देर से सोई थी। सुबह उठकर ऑफिस जाने की बिलकुल भी इच्छा न थी। मेरे ख्याल से हर किसी ने कभी न कभी ऐसा अनुभव ज़रूर किया होगा कि जब कहीं जाना हो और सोकर उठने की इच्छा बिलकुल भी न हो तो सपने में ही तैयार होने के उपक्रम होने लगते हैं और जागने के बाद यथार्थ-बोध होने पर गाड़ी भगानी पड़ती है।पहला अलार्म बजकर बंद हो चुका था। नींद हल्की-सी टूटकर तैयार होने की याद दिल चुकी थी। सोने की इच्छा मगर हर बात पर भारी थी। फिर भी मैं उठी, जल्दी-2 तैयार हुई; समय पर ऑफिस जो पहुँचना था। घर में हर कोई तैयार होकर भागने की जल्दी में था। मम्मी ने परांठे बनाकर रखे हुए थे जिन्हें फॉयल में लपेटकर मुझे टिफ़िन में रखना था। परांठे बहुत ही गरम थे, लेकिन मुझे जल्दी थी। ये देखकर मम्मी को एक पुरानी बात याद आ गयी और वो हंसने लगीं। उन्होंने मुझे बताया कि जब मैं छोटी थी तब भी अपना टिफ़िन खुद ही पैक करना चाहती थी। मैं अपने नन्हे-2 हाथों में परांठे पकड़ती थी जो बमुश्किल ही उनमें आते थे और यकायक पापा मुझसे पूछ देते, तुम्हारी बहन कहाँ है? और मैं हाथ फैलाकर कहती, "यहाँ!" (छोटी गोद में खिलाने लायक बहन की ओर इशारा करते हुए ) और मेरे हाथ से परांठे गिर जाते। फिर पापा खूब हँसते। मम्मी ने कहा, "तुम्हारे पापा फलां सीरियल वाले पति से कम हैं क्या?" अब तक हडबडाई हुई-सी मैं, कुछ पल को सुकून से खड़ी होकर ये बात सुनने लगी। मुझे मम्मी के मुँह से अपना बचपन जानना बड़ा ही भला लगता है।
खैर, मैं और मेरी बहन, हम दोनों ने अपने हाथों में रोल बनाकर आलू के परांठे पकड़े और तेज़ी से चलते बने। मेरे ऑफिस की ईमारत मेरे घर से दिखाई देती है। बहन का स्कूल भी पास ही है। हम पैदल जाते हैं और कुछ दूर तक साथ ही चलते हैं। मैं मम्मी की कही बात को सोचकर अभी तक मंद-2 मुस्कुरा रही हूँ। अपनी बहन को रास्ते में ये बात बताती हूँ। रास्ते में उसे ठोकर लगती है और उसका परांठा गिर जाता है। मैं उसे अपना आधा परांठा देती हूँ। वो मना करती है और मुझे ही उसे खाने को कहती है लेकिन मैं नहीं मानती; और फिर हम अपने-2 रास्ते निकल जाते हैं।
दूसरे अलार्म से मेरी नींद टूटती है। मेरे होठों पर मुस्कान है मगर ज्यादा देर तक नहीं। थोड़ी ही देर में वो मुस्कान गायब हो जाती है। मुझे अहसास होता है कि मैं अपने कमरे में अकेली हूँ। वहां घर का कोई नहीं। सुबह वाली कोई भागदौड़ नहीं। मैंने नाश्ता नहीं किया, मेरा टिफ़िन भी पैक नहीं है। मुझे याद आता है कि मैंने कभी अपना टिफ़िन खुद पैक नहीं किया, कि मम्मी सुबह कभी नाश्ते में परांठे नहीं देती थीं। मैं ऑफिस तो जाती हूँ मगर मेरी बहन स्कूल नहीं जाती। पापा ने वो शरारत कभी की ही नहीं। नाश्ता और टिफ़िन तो पी0जी0 वाले भैया तैयार करते हैं। फिर भी सबकुछ कितना असली था। कुछ देर तक तो यकीन ही करना मुश्किल हो रहा था। मैं वापस उसी दुनिया में होना चाहती थी मगर समय पर ऑफिस पहुँचना ज़रूरी था।
वो सपना चाहें जो भी था, मगर मेरे खुशमिजाज़ पापा, स्कूल जाती मेरी बहन की याद (बचपन में हम साथ स्कूल जाते थे: मैं, बहन, भाई), मम्मी का बचपन की बातें बताना, उनका टिफ़िन बनाना, सुबह सबका जल्दी-2 एकसाथ तैयार होना, ये सब असली हैं। जब तैयार होने उठी, तो अचानक बहुत ताज़ा महसूस कर रही थी। मन में रह-रहकर गुदगुदी-सी हो रही थी और अजीब-सी मायूसी भी।
वे सचमुच बड़े सुहाने दिन थे जो अब कभी नहीं लौटेंगे।