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Monday, November 28, 2011

प्राप्ति

छोटी-छोटी  बातों  में  मिलती   और  न  छिपती  ख़ुशी ,
सारे  संसार  से  ले  जाती  दूर  पर  करती अचंभित  नहीं |
वाणी  में  खनक  और  असीमित  माधुर्य ,
कटुता  करते  विस्मृत  पर  ये  कृत्रिम  नहीं |
लड़खड़ाते  और  थिरकते  कदम  संगीत  बिना ,
हैं  वास्तविक  पर  किंचित  विचित्र  नहीं |
आँखों  में  स्वप्न  और  साथ  में  अश्रु ,
दर्शाते  विचित्रता  पर  विरोधभास  नहीं |
मन  में  दृढ़ता  और  हाथों  के  अनियंत्रित  कम्पन ,
भरमाते  पर  करते  तनिक  भी  ग़लत  नहीं |
धरती  पर  न  पड़ते   कदम   और  उड़ना   आकाश  में ,
है  निश्चय  ही  सत्य  पर  अतिशयोक्ति  नहीं |
मुख  पर  कांति  और  लालिमा  खिलते  गुलाब  सी ,
युक्त  है  मोह से  पर  कपट  के  प्रतिरूप  नहीं |
चिर  सुसज्जित  मुस्कान ,  क्रोधमुक्ति,
विचार  मग्नता  , भावों  की  मूक  अभिव्यक्ति,
यह  लक्षण  दीखते   हैं  तब , जब ,
जीवन  रहता  नहीं  मात्र  अपने  लिए  |
संसार  की  सुन्दरता  , नवीनता  दिखना,
लगना सब  अच्छा  और  गुनगुनाना ,
होते  हैं  साधारण  बात  जब ,
मिलता  है  कुछ  बिना  मांगे  हुए |
: माता  के  गर्भ  में  पनपता  जीवन,
या  साथ  सच्चे  जीवन  साथी  का ,
पा  लेना  किसी  का  विश्वास ,
या  आपसी  समझ  पर  आश्रित  मित्रता |
हों  भले  ही  ये  बातें  साधारण-सी ,
पर  होती  है  विशिष्ट ता   इनकी  अपनी |
प्राप्ति  परमेश्वर  की  या  फिर  कोई  अतुलित  खज़ाना ,
होता  नहीं  यही  जीवन  में  कुछ  अनपेक्षित  पा  जाना ||

Monday, October 31, 2011

बहुत दिनों के बाद... आज

बहुत दिनों के बाद...
आसमां फिर नीला-नीला है,
तारों भरा चमकीला है, आज, बहुत  दिनों के बाद...

बहुत दिनों के बाद...
बादल हैं छंट चुके,
टुकड़ों में बंट चुके, आज...

बहुत दिनों के बाद...
पेड़ हैं हरे-हरे,
फूलों से भरे-भरे, आज...

बहुत दिनों के बाद...
नदिया में रवानी है,
जगह-जगह नयी कहानी है, आज...

बहुत दिनों के बाद...
हवा चल रही धीमी है,
मौसम में रंगीनी है, आज...

बहुत दिनों के बाद...
ले रहा है सांस,
मुझमें जीवन का अहसास, आज...

बहुत दिनों के बाद...
मैं हूँ आज़ाद,
न तुम हो कहीं-न तुम्हारी याद, आज...

Monday, September 05, 2011

एक शर्त ऐसी भी...

ये शर्त लगी थी मेरे और मेरे दोस्त के बीच. एक ऐसी शर्त जिसे हम दोनों ही हारना चाहते थे. शर्त थी कि एक-दूसरे के बारे में हम कविता लिखेंगे. जिसकी भी कविता ज्यादा अच्छी हुई, वो जीत जाएगा.

जो पहले लिख कर तैयार कर लेगा उसे बोनस पॉइंट्स मिलेंगे और कवितायेँ एक-दूसरे को तभी सुनाई जाएँगी जब दोनों लिख ली जायें. जीत और हार; दोनों का ही अपना फ़ायदा था: जीतने पर बेहतर कवि साबित होने का और हारने पर बेहतर दोस्त साबित होने का. 

सोच-विचार कर आपसी सम्मति से हमने दो योग्य लोगों को निर्णायक मंडल में शामिल कर लिया था जिन्होंने सहर्ष ही हमारा प्रस्ताव भी स्वीकार लिया (आखिर कोई ऐसी-वैसी शर्त नहीं थी; गौरव की बात थी). वे योग्य लोग थे: हम दोनों; किसी तीसरे को शामिल करना ठीक नहीं था.  ;)

बोनस पॉइंट्स मैं मार ले गयी; (हालाँकि एक नियम भी तोड़ा: कविता लिखते ही ख़ुशी-२ में सुना दी). दूसरी तरफ से कविता आने में बड़ी देरी हो रही थी. मैं हमेशा धमकी देती थी; जितनी देर, उतना नुक्सान! खैर, कविता मिली; पसंद आई. देर जानबूझकर की जा रही थी क्यूंकि किसी ख़ास मौके का इंतज़ार था, जीतने की परवाह किसे थी?

बोनस पॉइंट्स जीतने के बावजूद भी मैं हार गयी, हालाँकि यहाँ पर दूसरी ओर से बेईमानी भी हुई: गद्य एकदम मना था, मगर उसे मेरी डायरी में लिखने का वादा याद था जो उसने कविता देने के साथ-२ पूरा किया और कवितायें भी एक नहीं, दो-दो!

अब इसके बाद तो किसी स्कोर कार्ड की गुंजाईश ही नहीं रह गयी! हारने की खुशी भी बहुत हुई. ये खुशी बेहतर दोस्त साबित होने की नहीं थी, क्यूंकि शर्त और शायद बेहतर दोस्त साबित होने की होड़; दोनों ही वो जीत गया. ख़ुशी ऐसा दोस्त पाने की थी.

फिलहाल तो ये भी याद नहीं है कि शर्त लगी किस चीज़ की थी? जीतने वाले को हारने वाले से क्या मिलेगा या हारने वाले को जीतने वाले से क्या मिलेगा? हमें एक-दूसरे की दोस्ती मिली है, बाकी चीज़ों से तब फर्क क्या पड़ता है?? :)

P.S.: jeet ki khushi mein haarne wale ko ek party to di ja hi sakti hai! ;)

Wednesday, August 31, 2011

नदी की धारा

हर बार ये बात मुझे हतप्रभ-सी कर जाती है कि परिवार हमेशा परफेक्ट कैसे होता है? सबसे ज्यादा सम्पूर्ण रिश्ते तो हमें बने-बनाये ही मिल जाते हैं! लोगों को प्यार-दोस्ती से शिकायत हो सकती है, लोग इन चीज़ों के बिना जी लेने का दम भी भर लेते हैं मगर जब परिवार की बात होती है तो हर एक को उसके मम्मी-पापा, भाई-बहन बेस्ट लगते हैं. इनसे जितना भी दूर रह लो, याद पर कभी धूल की एक बारीक-सी पर्त भी नहीं चढ़ती.
पिछले हफ्ते ही मम्मी-पापा से मिली थी. घर गयी थी, तब भी वापस आते वक़्त बुरा लगा था और आज फिर उनसे मिलने के बाद अलग होना बुरा लगा. हर बार ऐसा होता है, उन्हें पलट-२ कर इतनी बार देख लेने का मन करता है कि बस मन भर जाये (हालांकि ऐसा हो नहीं पाता). ऐसा और किसी के लिए नहीं होता. दुनिया मैं आपके आस-पास ऐसे और कितने लोग होते हैं जिन्हें आप अपनी तकलीफें सिर्फ ये सोचकर नहीं बताते कि उन्हें तकलीफ पहुंचेगी?
कई बार ऐसा लगता है कि बदले माहौल में एक अरसा गुज़ार चुकने के बाद मैं बदल गयी हूँ (समय-२ पर लोग भी ऐसा कुछ कहकर जता भी देते हैं और अब इन बातों का खासा फर्क भी नहीं पड़ता) फिर तब परिवार से एक मुलाक़ात होती है और मुझसे मैं वापस मिल जाती हूँ, झलकियों में नहीं, खण्डों में नहीं; अपने पूरे वजूद के साथ. अपने उस हिस्से को मैं बहुत चाहती हूँ मगर किसी मजबूर प्रेमी की तरह अपना नहीं पाती क्यूंकि अगले दिन से ज़िन्दगी फिर पटरी पर आ जाती है और उसी रफ़्तार से दौड़ने लगती है.
एक दिन के लिए ही सही, मैं वापस मैं होती हूँ. उस दिन मैं बिना किसी संशय खुद पर व्यंग्य करने वालों को कह पाती हूँ कि तुम अगर ऐसा कहते हो अभी मुझे जानते नहीं. मेरा व्यवहार शुष्क रेगिस्तान-सा सही, मगर इसमें अब भी नदी की एक धार पूरे वेग से बहती है और वो कभी नहीं सूखेगी.
क्या कोइ भी हमें कभी उतना प्यार कर पायेगा जितना हमारा परिवार हमसे करता है? उनके साधारण-से शब्दों के पीछे छिपी फिक्र, हर बार उनका भींचकर गले से लगा लेना; इस सबकी आर्द्रता आप महसूस कर सकते हैं, थोड़ी भी कोशिश किये बिना. आप फैशनपरस्ती में अपने बोलने का लहजा बदलकर सारी दुनिया में घूमें, लेकिन परिवार के साथ आप शुद्ध रूप से आप होते हैं, अमूमन खुश होते हैं और सर्वाधिक सशक्त होते हैं; उस पल पूरी दुनिया के सामने भी आप खुद को बौना नहीं समझते. क्या दुनिया में कोई और रिश्ता ऐसा है?

Sunday, July 03, 2011

कैसे कहूं कि तुम क्या हो?

एक अंधियारी-सी रात में,
बढाया था तुमने अपना हाथ.
बिना कहे कुछ बिना सुने,
चुपचाप चले कुछ दूर तक साथ.
अभिभूत थी मैं उस पल में ही;
कहती कैसे, कि तुम क्या हो...

उस गुमसुम-सी रात में,
जब मैं रोते-रोते सोयी थी.
आंसू चुराने आये तुम,
जब मैं सपनों में खोई थी.
अभिभूत...............................

उठी जब तो पाया मैंने,
सुबह बड़ी खूबसूरत थी.
जो छोड़ गया लब पर मुस्कान,
मुझे उसकी ज़रुरत थी.
अभिभूत...............................

बरबस लगी मैं तुम्हें ढूँढने,
लगा ज्यों तुम मुझसे रूठे थे,
पर, दबे पाँव आकर कबसे,
तुम पास मेरे ही बैठे थे.
अभिभूत...............................

रूठी तुमसे, तुम्हें मनाया,
बांटा तुमसे अकेलापन.
खुद संग सदा तुम्हें सच्चा पाया,
और किया साझा अपना मन.
अभिभूत...............................

पल-२ तुमने किया भरोसा,
दिखाई राह मुझको अक्सर.
पागल दुनिया की चिंता छोड़,
कभी हँसे खूब हम पेट पकड़.
अभिभूत...............................

अधूरा न कोई, न कोई पूरा,
खामोशी न कोई हलचल है.
तुम हो तुम और मैं हूँ मैं,
फिर भी अनमोल ये पल हैं.
अभिभूत हूँ मैं इस पल में ही;
कहूं कैसे कि तुम क्या हो?




Tuesday, June 14, 2011

बदलने और न बदलने का सिलसिला

जब आप एक लम्बे अरसे के लिए अपने शहर से दूर जाते हैं तो लोगों को आपसे एक अलग तरह की उम्मीद हो जाती है. कुछ उम्मीद करते हैं कि जब आप लौटेंगे तो बिलकुल भी नहीं बदले होंगे; और कुछ सोचते हैं कि आप बहुत कुछ नया सीखकर और पहले से बेहतर होकर लौटेंगे.
रोचक तथ्य तो ये है कि आप बदले हों या न बदले हों, हर कोई अपनी उम्मीद के मुताबिक कुछ अच्छे और कुछ बुरे लगने वाले बदलाव ढून्ढ ही लेता है. आपके जीवन में घटने वाली हर एक घटना आपमें कुछ न कुछ बदलती है, मगर ये बदलाव महत्त्वपूर्ण तब हो जाते हैं जब आप शहर बदलते हैं. इनमें से ज़्यादातर बदलाव लोगों को निराश करने वाले ही होते हैं और आमतौर पर खुली बाहों से स्वीकार नहीं किये जाते.
एक नयी दुनिया को टटोलकर वापस आने के बाद आपमें बदलाव आने स्वाभाविक हैं. जब आप पल-२ कुछ नया सीखते और खुद को बदलते रहते हैं, तो क्या एक लम्बे अरसे तक बाहर रहकर बदलावों से अछूते रहने की उम्मीद बेमानी नहीं? एक व्यक्ति को आपसे जो चाहिए वही दूसरे व्यक्ति को नहीं चाहिए. हर किसी की भावनाएं आहत हो जाती हैं. ये बिलकुल उसी तरह है जैसे पिता परदेस जायें, आपकी फरमाइशों की एक लम्बी फेहरिस्त हाथ में लिए. वहां के बाज़ार से किसी कारणवश (अनुपलब्धता या पैसों की कमी इत्यादि) आपका मनचाहा सामन न ला पाएं, मगर उसकी जगह कुछ ऐसा खरीद लें जो उन्हें लगे कि घर ले जाऊंगा तो सबको भायेगा. कुछ लोग तो इतने ज्यादा प्रिय होते हैं कि उनके लिए कुछ विशिष्ट लाने की चाह में उपयुक्त सामान उन्हें सारे बाज़ार में नहीं मिलता. घर वापस जाने पर सारे नाराज़ हैं, कोई खुश नहीं, उन्हें लगता है कि उन्हीं की फरमाइशों के साथ समझौता किया गया है और वे महत्त्वपूर्ण नहीं. कोई ये पूछना ज़रूरी नहीं समझता कि पिता खुद अपने लिए क्या लाये हैं. शायद अपने लिए कुछ भी नहीं.
जब बदलाव लाना खुद आपके हाथ में नहीं तो उन्हें 'अन डू' करना भला आपके हाथ में कैसे होगा? बदलाव तो बिना बताये आ जाते हैं. कुछ सवाल जिनका सामना ऐसी परिस्थितियों में लगभग हर किसी को करना होता है:
* नए दोस्त बन गए तो पुराने दोस्तों की कोई हैसियत ही नहीं?
* ज्यादा कमा रहे हो तो इस कदर घमंड में रहोगे?
दो कारण समझ में आते हैं:
* जब आप पल-२ आ रहे बदलावों का पुलिंदा लेकर वापस जाते हैं तो उसे एकदम से स्वीकार लेना आसान नहीं होता.
* हर कोई आपको पूरी तरह नहीं जानता. आपके व्यक्तित्व का कोई न कोई भाग किसी न किसी से छिपा हुआ रहता है जिसका 'डाटाबेस' पूरी तरह आपके दिमाग में होता है. लम्बा समय बीत जाने पर आपको याद नहीं रहता कि किसे कौन-सा भाग दिखाना है, और यहाँ नज़र आता है उन्हें आपका नयापन.

'तुम बहुत बदल गए हो/अब तुम पहले जैसे नहीं रहे' ये बड़े ही नकारात्मक वाक्य हैं जो कहने वाले से ज्यादा सुनने वाले को चोट पहुंचाते हैं, उन्हें परायेपन का एहसास कराते हैं. अगर आप खुद को ऐसे किसी व्यक्ति का करीबी कहते हैं तो उसे समझिये, समझाइये, स्वीकारिये; तीखी टिप्पणी मत कीजिये. बदलाव के कारण को जानने की कोशिश कीजिये. क्या पता, कल तक जो आपके सामने बिना कहे अपना दिल खोलकर रख देता था, आज उसके आंसू सूख चुके हों; कल तक जो हर मौके पर आपके साथ खड़ा था, वो अपनी तमाम बड़ी-छोटी जीती-हारी लड़ाइयाँ अकेले लड़कर आया हो. क्या पता... 

Friday, June 10, 2011

मेरी पहली कहानी

याद नहीं ये कब की बात है, लेकिन तब मैं बहुत छोटी थी. आज एक मित्र ने पूछा तो याद हो आया.. नया-२ ही लिखना और पढना सीखा था. कोर्स की किताबों में तो उतनी दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन दीदी (बुआ की बेटी) के लिए मेरे चाचा कॉमिक्स किराये पर लाते थे. वो बड़ी थीं तो ज़ाहिर सी बात है कि मुझसे ज्यादा ही पढ़ लेती थीं. हम दोनों टूटा-फूटा ही सही, मगर खुद से पढ़ते थे. इंटेरेस्ट जाग गया, पढने में ही नहीं, कहानियों में भी. अब मेरे लिए भी कॉमिक लायी जाने लगी. कोई और मुझे पढ़कर सुनाये, मुझे अच्छा नहीं लगता था; सो, कुछ ज्यादा ही जल्दी अक्षरों को मिला-२ कर लिखना और पढना सीख गयी थी.
यूं भी पापा बचपन से ही रात में कहानियां सुनाकर सुलाते थे या यूं कहूँ  कि कहानियां सुने बगैर मैं सोती ही नहीं थी. उनका स्टॉक खाली हो जाने पर पुरानी कहानियां दोबारा सुन लेती थी, मगर कभी छोडती नहीं थी. कवितायेँ तो किताब से याद करनी होती थीं इसलिए अच्छी नहीं लगती थीं. शायद यही कारण है कि मेरी पहली रचना एक कहानी थी.
सीधी सी बात है, जो भी पढ़ती या सुनती थी, मेरी कहानी भी उससे ही प्रेरित थी. कहानियों में आम तौर पर तिलिस्मी कुएं या पेड़ इत्यादि का ज़िक्र होता था. मैं कुछ अलग लिखना चाहती थी, जिससे कोई उसे नक़ल न कहे. मैंने सोचा, क्यूँ नहीं एक जादुई सड़क? उस वक़्त मैं पापा की दूकान पर बैठी थी, वहां से सड़क और उसपर आते-जाते लोगों को देखा करती थी. स्कूल में पेंसिल से लिखना होता था, पेन से तो बड़े लोग लिखते थे; सो, हर बच्चे की तरह मुझे भी पेन से लिखने का बड़ा मन होता था. दूकान में उस समय चाचा थे. मैं उनका काम न बढाऊँ इसलिए उन्होंने मुझे कागज़ और पेन दे दिया था.
खैर, मैंने सोचना शुरू किया. सड़क को जादुई बनाने के पीछे भी एक लॉजिक था: सड़क पर अमूमन लोगों को पड़ी हुई चीज़ें मिल जाया करती हैं; तो, मेरी सड़क जादुई थी. लोग उससे जो भी मांगते थे, वो उन्हें देती थी. लोग भी उससे बहुत प्यार करते थे, मगर उसकी सफाई का ध्यान नहीं रखते थे. कुछ भी खाया-पिया, और कूड़ा सड़क पर. एक दिन उस सड़क की जादुई शक्तियां चली गयीं. लोग परेशान हो उठे. वो जो भी मांगते, उन्हें मिलता ही नहीं. उन्होंने सड़क से पूछा. सड़क ने बताया कि वो इतनी गंदी रहती है कि अब किसी की इच्छा को पूरी करने के लायक नहीं बची. लोग बड़े शर्मिंदा हुए. शायद माफी भी मांगी हो. उन्होंने न सिर्फ सड़क को साफ़ किया, बल्कि आगे भी उसकी सफाई का बड़ा ध्यान रखने लगे! तो इस तरह, मेरी कहानी में एक शिक्षा भी थी, साफ़-सफाई रखने की. स्कूल में जो बातें सिखाई जाती हैं, वो कहीं न कहीं दिख ही जाती हैं, क्यूंकि सिर्फ बचपन में ही तो हम उनका पालन करते हैं.
खैर, उस कागज़ में मैंने अपनी गन्दी-सी हस्तलिपि में और बड़ी ही काट-पीट करके लिखा था, मगर जब चाचा को पढाया तो उन्होंने बड़ी ही तारीफ की. हाँ, मुझे 'चीज़' लिखना नहीं आ रहा था, उसे मैंने हर जगह 'जीच' लिखा था. चाचा ने उसे सही कराया और मेरी नज़र में  वो बड़े ज्ञानी और हीरो हो गए! मैंने वो कहानी दो पेज में लिखी थी और नाम था शायद 'सड़क'.
चाचा की हौसला अफजाई से खुश होकर फिर मैंने वो घर में सबको दिखाई. सबने बहुत तारीफ की. मैं इतनी ज्यादा खुश हो गयी कि मैंने वो गन्दा सा पेज कमरे की दीवार पर उतनी ऊंचाई पर जहाँ तक मैं पहुँच सकती थी, चिपका दिया; जिससे आते-जाते हर समय लोग उसे देखें और मेरी तारीफ करें. २ दिन तक वो दीवार पर उपेक्षित-सा लगा रहा, और उसके बाद कमरे की सफाई के दौरान कचरे में फिंक गया! :(
आज ये सब याद आया, तो बड़ी देर तक हंसती रही. आप कितनी देर हँसेंगे?

Sunday, May 29, 2011

नौकरीपेशा होने का दर्द.. :P

घर के खाने से नाता तोड़,
चले हम अपने शहर को छोड़,
पैसे खूब कमाते हैं,
अब नौकरी पर जो जाते हैं |

थक कर शाम जब वापस आते,
खाते-पीते और सो जाते,
हर दिन ऐसा ही बिताते हैं,
अब नौकरी पर जो जाते हैं |

कभी जो घर कि याद सताए,
नयन भर अपनों को देख न पाएं,
छुट्टी के पैसे कट जाते हैं,
अब नौकरी पर जो जाते हैं |

नीरस और अकेला जीवन,
आराम नहीं मिलता भर मन,
बड़े लोग कहलाते हैं,
अब नौकरी पर जो जाते हैं |

जीवन सीमित एक कमरे में,
अनजानापन हर चेहरे में,
परायों में मन बहलाते हैं,
अब नौकरी पर जो जाते हैं |

मज़ा है आता सबके साथ,
पर है अब सबकुछ अपने हाथ,
जल्दी में दौड़े जाते हैं,
अब नौकरी पर जो जाते हैं |

गौरवबोध यकीनन आया है,
पर सूनापन संग लाया है,
जिससे भाग नहीं हम पाते हैं,
अब नौकरी पर जो जाते हैं |

उस दिन हमने बांटी थी मिठाई,
बाद उसके मिठास वापस न आयी,
यंत्रवत बस जिए जाते हैं,
अब नौकरी पर जो जाते हैं |

Monday, April 25, 2011

एक बार जब मैं भागी थी...


ये तब की बात है जब है जब खुशकिस्मती या कहिये कि बदकिस्मती से मुझे लेकर दो धुरंधर कम्पनियों में खींचतान मची हुई थी और इस खींचतान में मेरे कॉलेज के भी कूद पड़ने का पूरा अंदेशा था. तब मैं कुछ समय के लिए underground हो जाना चाहती थी. मैंने फैसला कर लिया था अपनी तत्कालीन कंपनी को छोड़ने का मगर शायद ये उतना आसान न था. सारी तरकीबें बेकार हो रही थीं.
 जब गांधीवाद से कुछ हल न हुआ तो मैंने बागी हो जाने का फैसला किया. लंच टाइम से थोडा ही पहले कंपनी गयी, सिस्टम खोला, अपनी निजी files डिलीट कीं और फिर बड़े शान से सबके सामने सामान उठाकर निकल पड़ी. वो अलग बात है कि मेरे मन के चोर में तब भी इतनी हिम्मत न थी कि लंच टाइम से अलग किसी वक़्त पर निकल सकती.
खैर, अपनी सीट से लेकर लिफ्ट तक, लिफ्ट से बिल्डिंग के बाहर तक, मैं बिलकुल सांस रोके निकली. एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा. डर था कि कहीं कोई आवाज़ देकर न रोक ले. तब फिर मैं क्या बोलूंगी? बाहर आकर सीधे रिक्शा किया, वहां से एक ऑटो, और फिर एक और ऑटो. अपने ठिकाने तक बिना किसी रुकावट पहुँच गयी. मगर इस पूरी भागदौड़ के दौरान मैं अकेली न थी. कोई और भी था मेरे साथ.. सामने न सही, फ़ोन पर! मेरा एक मित्र, जिसकी संयोग से कॉल आ गयी थी और फिर उसे इतना मज़ा आया कि पूरी घटना के दौरान उसे एक पल भी फ़ोन न रखा और पल-२ की खबर ली. मेरी भी हिम्मत इससे थोड़ी बढ़ गयी. 
बातों-२ में ही उसने बताया कि उसे उस रात की ट्रेन से घर निकलना है और उसकी ट्रेन कानपुर होते हुए जाएगी. जाट आन्दोलन के चलते मेरी ट्रेन वैसे भी रद्द हो गयी थी. आनन-फानन में मैंने भी साथ चलने की पेशकश कर दी; वो भी तब जबकि उसकी खुद की टिकट confirm न थी. ट्रेन के छूटने में अभी काफी वक़्त था. मैंने खाया-पीया, कुछ देर सुस्ताया और फिर पैकिंग शुरू कर दी. शाम को स्टेशन के लिए निकली पर समय से पहुँच न सकी. संयोग तो देखिये कि ट्रेन खुद भी समय पर स्टेशन न पहुँच सकी! खैर, मैं जैसे-तैसे कानपुर पहुंची और फिर वहां से लखनऊ. घर वालों को बिना कोई सूचना दिए मैं घर पहुंची थी. उनकी ख़ुशी तो देखते ही बनती थी; होली का त्यौहार जो था. 
वो पूरा समय काफी हलचल भरा था. सब कुछ तो यहाँ लिखा नहीं जा सकता मगर हाँ, इस पोस्ट को लिखने का कारण बताना तो बनता है. उस दिन मैं भागने के मज़े को जान पायी थी. जान पाई कि लोग भागकर शादी क्यों करते हैं; आखिर मैं भी तो भागी थी. उस दिन मैं भागी थी.. जी हाँ! अपने उस दोस्त के साथ, पहले फ़ोन पर और फिर सचमुच! आँखों के आगे सोचा न था, जब वे मेट, उड़ान समेत न जाने कितनी ही फिल्मों के दृश्य तैर गए थे.

Sunday, April 17, 2011

एक बात


आज अकेले सड़क पार करते हुए एक ख्याल आकर टकरा गया- मेरे दोस्त मुझसे कहते थे: "तुम अकेले सड़क पार करना कब सीखोगी?" उनमें से कुछ लोगों के लिए ये कहकर भूल जाने वाली बात होती थी तो कुछ लोग इसे सीधे मेरी आत्मनिर्भरता से जोड़ते थे; उन्हें लगता था कि चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो, जब तक बहुत ज़रूरी न हो, किसीसे मदद नहीं मांगनी चाहिए | उन लोगों के लिए मेरी दलील ये होती थी कि चाहे बात कितनी मामूली क्यों न हो, जब तक किसी का हाथ और साथ मिल रहा है, नहीं छोड़ना चाहिए | ये एक बहाना भर हुआ करता था, उस समय खुद के बचाव के लिए |
                  आज ऐसा लगा कि तब कितनी गहरी बात कह गयी थी | आत्मनिर्भरता ज़रूरी है लेकिन हर एक छोटी बात पर उसका ढोल पीटना बिलकुल ज़रूरी नहीं | इंसान को सिर्फ इतना मालूम होना चाहिए कि वह काबिल है, समर्थ है और खुद पर भरोसा होना चाहिए | आत्मनिर्भरता का ज्यादा दिखावा आपको अपनों से दूर कर देता है, कुछ छोटे ही सही, मगर अनमोल पल छीन लेता है |
                   अकेले सड़क पार करने से मैं आज भी उतना ही डरती हूँ जितना पहले डरती थी लेकिन यह पहले भी मालूम था और आज भी मालूम है कि कोई साथ नहीं होगा तो मैं खुद भी कर लूंगी और किया है | कभी किसी राह चलते से मदद नहीं मांगी, हाँ, दोस्त-यार साथ हुए तो कभी मौका भी नहीं छोड़ा और आज भी जबकि यह रोज़ की आदतों में से है, कभी मौका मिला तो नहीं छोडूंगी | वो झिडकियां और हिदायतें कहीं न कहीं अच्छी लगती हैं और अब आसानी से मिलती भी नहीं; न ही अब साथ मिलता है | 

Monday, March 14, 2011

एक अधूरी बुनावट

                          सुनहरे ख्वाबों की रेशमी डोर हाथ से छूटी जाती है,
                          उधर तुमने मुँह फेरा, इधर साँस मेरी टूटी जाती है |

Monday, February 21, 2011

बेखुदी

खामोश-सी रातों में तन्हाई आकर पसर जाती है,
कई रोज़ से आँखों में नमी-सी उतर आती है |

कुछ देखे- कुछ अनदेखे-से, पलकों में जो क़ैद हैं,
अधूरे ख़्वाबों के दरम्याँ, नींद आकर गुज़र जाती है |

तुमसे पूछे बगैर हमने, दे दिए थे जो तुम्हें,
हर दिशा में उन वादों की आवाजें बिखर जाती हैं |

जब भी बैठी आँखें मूंदे, उनमें तुम्हारा आना हुआ,
मेरे मन की सारी गलियाँ रोशनी से भर जाती हैं |

हर पदचाप, हर आहट पर, चौंक-सी उठती हूँ मैं,
उम्मीद की एक दस्तक और, घर की हर शै सँवर जाती है |

 दुनिया की भीड़ में, जाना-सा एक चेहरा देखा था,
मेरी यादों में अक्सर उसकी तस्वीर-सी उभर आती है |

कई बार सोचती हूँ, कहीं दूर चली जाऊं,
पर, शहर की हर एक डगर तुम्हारे नगर जाती है | 

Thursday, February 10, 2011

bas yoon hi..

apne un doston ke liye jinse mil paana ab utna sahaj nahin..

कैसा अजीब ये लम्हा है,
हम भीड़ में हैं और तनहा हैं!!

कैसे सहे दुनिया के सितम,
दिल तो नन्हा बच्चा है !!

लाखों तारों के बीच जैसे,
आकाश में रहता चंदा है!!

तारों में भी चमक नहीं,
ये कैसा गोरखधंधा है??

हिम्मत न हार ऐ मेरे दिल,
तू तो अल्लाह का बंदा है!!

कैसी मुश्किल है आन पड़ी,
सबका हाल equally गन्दा है!! :P

Thursday, February 03, 2011

कौन कहता है...

कौन कहता है कि प्यार सिर्फ एक बार होता है और एक से ही होता है? कौन कहता है कि समय सब कुछ भुला देता है? जब पहली बार शहर बदला तो लगा कि संवेदनहीनता घर करने लगी है. एक समय पर तो लगने लगा कि सुख-दुःख सबसे ऊपर उठ चुकी हूँ. नए लोगों में से किसी को अपने दिल के करीब रखा नहीं और पुराने भी सभी रिश्तों से दूर होती गयी. फिर दूसरी बार शहर बदला और सबकुछ बेमानी लगने लगा. इस बार संवेदनशीलता का ज्वार आया. मानना ही पड़ा कि कभी किसी से दूर गयी ही नहीं थी बल्कि जितनी भी दूर आती गयी, किसी न किसी को अपने सफ़र में साथ लाती गयी. प्यार करती गयी और झुठलाती गयी. समय के साथ-२ रंग पक्के ही होते गए. अब अपनी हार मान ली है, अब रुक जाना चाहती हूँ.. लेकिन यह भी एक कठोर सत्य है कि मेरे रुकने से दुनिया रुकेगी नहीं, वो चलती ही जाएगी, और अगर मैं रुकी, तो पीछे छूट जाऊँगी. 
अपनी बुद्धिहीनता पर, अपने आप को सबसे ऊपर समझने की मूर्खता पर, अब हंसी आती है. अपनी निरीहता पर अब तरस आता है, और ये कहीं न कहीं आज हम सबकी हालत है. जीवन बहुत कठोर है और हम कठोरता में उससे भी आगे निकल जाना चाहते हैं. हम रुकना नहीं चाहते क्यूंकि हम डरते हैं, वास्तविकता को स्वीकारने से. हमें समझना होगा कि ये होड़ हमें कहीं नहीं ले जाएगी.
दुनिया को देखते- समझते हुए अभी कुछ ही अरसा हुआ है और काफी परिभाषाएं टूटने लगी हैं. ये बहुत ही पीड़ादायी है- जैसे कि लोग तो ये भी कहते थे कि घर एक ही होता है.

Friday, January 28, 2011

वाकया

कल मैंने अपने कान की एक बाली खो दी, चाँदी की थी. वो खो गयी है, इसका भान होते ही पहले तो मैं थोड़ा परेशान हुई, फिर तुरंत एक वाकया याद आ गया. पिछले साल मेरी एक चाँदी की अंगूठी पानी में बह गयी थी, देहरादून में.  तब घर लौटने पर मम्मी ने उसकी जगह दूसरी तो बनवा दी थी मगर साथ ही साथ मेरी सोने की बालियाँ भी बदल दी थीं, ये कहते हुए कि अगली बारी उनकी थी. उस दिन मैंने कहा तो कुछ नहीं लेकिन मन ही मन सोचा था कि क्या मैं सचमुच इतनी लापरवाह हूँ जितना वो मुझे समझती हैं? खैर, उनकी डांट से बचने के लिए और कुछ खुद भी परेशान होने की वजह से मैंने उसे (बाली को) ढूँढना शुरू कर दिया, मगर वो नॉएडा से गुडगाँव तक कहीं भी हो सकती थी और इतने घंटों के अंतर पर और इतनी छोटी-सी चीज़ का मिल पाना वैसे भी नामुमकिन था. मैं समझ चुकी थी कि अब कुछ नहीं हो सकता, मगर फिर भी, अन्दर से एक ख़ुशी-सी हो रही थी कि मम्मी मुझे कितना ज्यादा जानती हैं, खुद मुझसे भी ज्यादा. कल वो मुझसे मिलने आ रही हैं, और मैंने अभी भी उन्हें कुछ नहीं बताया है. अब जो होगा, कल ही होगा. उनकी नज़र से वैसे भी कुछ छुपा नहीं रह सकता.
                  फिलहाल एक ख्याल मेरे मन में बार-२ घूम-२ कर आ रहा है-- कुछ चीज़ों को खोने में सच में बड़ा मज़ा आता है, फिर कीमत चाहे कुछ भी हो! 

Thursday, January 27, 2011

मनोदशा

अब तक देखती थी तो चारों तरफ शिकवे ही शिकवे थे, मन की गीली मिटटी पर घास-फूस से उगे हुए, हरे-हरे, मगर अब आँखें बंद कर महसूस कर रही हूँ कि कहीं न कहीं वो मेरे तलवों को गुदगुदा रहे हैं, मैं महसूस कर पा रही हूँ उनकी नरमाहट को, मृदुलता को, कोमल छुअन को, खुरदुरी सड़क पर चंद क़दम नंगे पाँव चल चुकने के बाद | अब लगता है, कोई शिकायत इतनी बड़ी नहीं कि जिसकी माफ़ी न हो |
हाँ, घर छोड़कर आई थी, अनजाने शहर, अनजाने लोगों के बीच, सोचा था, कभी अपना नहीं पाउंगी, न मैं इन्हें, ने ये मुझे | अब जबकि ये पड़ाव भी छूटने को है तो एक लगाव, एक जुड़ाव महसूस कर पा रही हूँ,  ठीक वैसे ही जैसे घर में अलग-२ स्वभाव वाले कितने ही लोग होते हैं, मगर आप कभी उन्हें छोड़ नहीं सकते | समझ पा रही हूँ कि नानी के घर से आते समय मम्मी क्यों रोती हैं |

गणतंत्र दिवस

कहें सहर्ष हम सब मिलकर,
है गर्व हमें भारतीयता पर |
६१ वर्ष होने को आये,
हम गणतंत्र-लोकतंत्र कहलाये,
स्वाभिमान हो उठा मुखर,
है गर्व...
जीवन को नया अर्थ दिया,
हमको बड़ा समर्थ किया,
इस दिन ने बनाया हमें निडर,
है गर्व...
नियम-कानून, अधिकार दिए,
इसने जीवन संवार दिए,
देश को बनाया आत्मनिर्भर,
है गर्व...
संविधान ने हमें शक्ति दी,
गौरव की अभिव्यक्ति दी,
इसकी रक्षा हमारे काँधों पर,
है गर्व...
अब बस इतना ही कहना है,
कानून का पालन करना है,
निभाएं फ़र्ज़ ये शपथ खाकर,
है गर्व...

Monday, January 24, 2011

बचपन और समझदारी (भाग-2)

पंछी उड़ चले हैं, अलग-२ दिशाओं में |
लिए नए नीड़ का स्वप्न, घने पेड़ की छाँव में |
क्या होगा उस नीड़ का, जहाँ आज भी उनकी महक है,
पहली उड़ान का डर और पहली चहक है |
बुलाता होगा वो पेड़, ये सोच नींदें उड़ा ले जाती है,
महत्त्वाकांक्षा की तीव्र बयार फिर, हर ख्याल को उड़ा ले जाती है |

Sunday, January 02, 2011

फुर्सत के दुर्लभ पल

बीते कई दिनों से नौकरी, ट्रेनिंग, exam और पता नहीं कहाँ-कहाँ उलझी हुई हूँ. कुछ सोचना भी चाहूँ तो walk -ins, नेटवर्किंग, मल्टीमीडिया वगैरह से बाहर नहीं आ पा रही. क्या सिर्फ यही बाकी रह गया है ज़िन्दगी में? बहुत सारी और चीज़ें भी तो हैं; जैसे कि बहुत सारे अनसुलझे सवाल जिनके जवाबों को मैंने वक़्त पर छोड़ रखा था और फिर कभी उनकी सुध नहीं ली; कुछ बेहद करीबी रिश्ते जहाँ मिलने कि इच्छा तो है, पर समझ नहीं आता कि बात क्या करूँ; बहुत सारे प्लान्स जिन्हें आने वाले प्लान्स में जोड़ती जा रही हूँ; बहुत कुछ ऐसा जो गलत था, फिर भी किया और भगवान् यहाँ तक कि खुद को भी अपनी बेबसी या मजबूरी तक नहीं बताई; और भी न जाने क्या-२. बीते साल किसी भी शादी में नहीं गयी, इसका अफ़सोस मना सकती हूँ या फिर कई दिनों से घर नहीं गयी, इस बात पर आंसू बहा सकती हूँ या फिर थोड़े ही दिनों में कॉलेज और हॉस्टल छोड़ने के दुःख और आगे नए सिरे से ज़िन्दगी सहेजने की चिंता में डूब सकती हूँ या बाकी सबकी तरह नए साल कि खुशियाँ मनाते हुए सबकुछ भूल सकती हूँ या फिर एक बार और सब कुछ वक़्त पर छोड़ सकती हूँ.
कल कुछ टैगोर साहित्य लेकर आई हूँ और अब मेरे पास करने को काम ही काम है; वो भी मेरा पसंदीदा.