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Monday, September 05, 2011

एक शर्त ऐसी भी...

ये शर्त लगी थी मेरे और मेरे दोस्त के बीच. एक ऐसी शर्त जिसे हम दोनों ही हारना चाहते थे. शर्त थी कि एक-दूसरे के बारे में हम कविता लिखेंगे. जिसकी भी कविता ज्यादा अच्छी हुई, वो जीत जाएगा.

जो पहले लिख कर तैयार कर लेगा उसे बोनस पॉइंट्स मिलेंगे और कवितायेँ एक-दूसरे को तभी सुनाई जाएँगी जब दोनों लिख ली जायें. जीत और हार; दोनों का ही अपना फ़ायदा था: जीतने पर बेहतर कवि साबित होने का और हारने पर बेहतर दोस्त साबित होने का. 

सोच-विचार कर आपसी सम्मति से हमने दो योग्य लोगों को निर्णायक मंडल में शामिल कर लिया था जिन्होंने सहर्ष ही हमारा प्रस्ताव भी स्वीकार लिया (आखिर कोई ऐसी-वैसी शर्त नहीं थी; गौरव की बात थी). वे योग्य लोग थे: हम दोनों; किसी तीसरे को शामिल करना ठीक नहीं था.  ;)

बोनस पॉइंट्स मैं मार ले गयी; (हालाँकि एक नियम भी तोड़ा: कविता लिखते ही ख़ुशी-२ में सुना दी). दूसरी तरफ से कविता आने में बड़ी देरी हो रही थी. मैं हमेशा धमकी देती थी; जितनी देर, उतना नुक्सान! खैर, कविता मिली; पसंद आई. देर जानबूझकर की जा रही थी क्यूंकि किसी ख़ास मौके का इंतज़ार था, जीतने की परवाह किसे थी?

बोनस पॉइंट्स जीतने के बावजूद भी मैं हार गयी, हालाँकि यहाँ पर दूसरी ओर से बेईमानी भी हुई: गद्य एकदम मना था, मगर उसे मेरी डायरी में लिखने का वादा याद था जो उसने कविता देने के साथ-२ पूरा किया और कवितायें भी एक नहीं, दो-दो!

अब इसके बाद तो किसी स्कोर कार्ड की गुंजाईश ही नहीं रह गयी! हारने की खुशी भी बहुत हुई. ये खुशी बेहतर दोस्त साबित होने की नहीं थी, क्यूंकि शर्त और शायद बेहतर दोस्त साबित होने की होड़; दोनों ही वो जीत गया. ख़ुशी ऐसा दोस्त पाने की थी.

फिलहाल तो ये भी याद नहीं है कि शर्त लगी किस चीज़ की थी? जीतने वाले को हारने वाले से क्या मिलेगा या हारने वाले को जीतने वाले से क्या मिलेगा? हमें एक-दूसरे की दोस्ती मिली है, बाकी चीज़ों से तब फर्क क्या पड़ता है?? :)

P.S.: jeet ki khushi mein haarne wale ko ek party to di ja hi sakti hai! ;)