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Sunday, July 03, 2011

कैसे कहूं कि तुम क्या हो?

एक अंधियारी-सी रात में,
बढाया था तुमने अपना हाथ.
बिना कहे कुछ बिना सुने,
चुपचाप चले कुछ दूर तक साथ.
अभिभूत थी मैं उस पल में ही;
कहती कैसे, कि तुम क्या हो...

उस गुमसुम-सी रात में,
जब मैं रोते-रोते सोयी थी.
आंसू चुराने आये तुम,
जब मैं सपनों में खोई थी.
अभिभूत...............................

उठी जब तो पाया मैंने,
सुबह बड़ी खूबसूरत थी.
जो छोड़ गया लब पर मुस्कान,
मुझे उसकी ज़रुरत थी.
अभिभूत...............................

बरबस लगी मैं तुम्हें ढूँढने,
लगा ज्यों तुम मुझसे रूठे थे,
पर, दबे पाँव आकर कबसे,
तुम पास मेरे ही बैठे थे.
अभिभूत...............................

रूठी तुमसे, तुम्हें मनाया,
बांटा तुमसे अकेलापन.
खुद संग सदा तुम्हें सच्चा पाया,
और किया साझा अपना मन.
अभिभूत...............................

पल-२ तुमने किया भरोसा,
दिखाई राह मुझको अक्सर.
पागल दुनिया की चिंता छोड़,
कभी हँसे खूब हम पेट पकड़.
अभिभूत...............................

अधूरा न कोई, न कोई पूरा,
खामोशी न कोई हलचल है.
तुम हो तुम और मैं हूँ मैं,
फिर भी अनमोल ये पल हैं.
अभिभूत हूँ मैं इस पल में ही;
कहूं कैसे कि तुम क्या हो?