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Wednesday, October 05, 2016

संघर्ष, जीवन और बदलाव

बीते कई दिन ठहरे पानी-से रहे: सतही तौर पर स्थिर, भीतर से उथल-पुथल भरे। जीवन प्रवाहमयी ही अच्छा लगता है, बिलकुल पानी की तरह। खैर, अपने मानसिक द्वन्द्वों से सब जूझ ही लेते हैं, शायद यही जीवन की खूबी है, शायद इसे ही जिजीविषा कहते हैं।

हर जीत की तरह इस जीत की भी अपनी एक कीमत होती है। बुरा वक़्त हमें ढेर सारी चीज़ें सिखाता है, लेकिन साथ ही हममें काफी कुछ बदलता भी है। एक समय तक लगता है कि ये सभी बदलाव सकारात्मक हैं लेकिन क्या सचमुच सबकुछ वैसा ही है?

बदलाव तो निर्विवाद रूप से सत्य है।  हम जो आज हैं वो कल नहीं थे, जो कल होंगे वो आज नहीं हैं।  हमारा हर संघर्ष कहीं न कहीं हमारी मासूमियत का एक टुकड़ा हमसे छीन लेता है; फिर क्या चोट खाकर संभल जाना वाकई संभल जाना है?

भरोसे पर लगी एक चोट हमें इंसान पहचानना सिखा देती है, लेकिन पहले की तरह सहज ही विश्वास कर लेने का साहस हम खो देते हैं।  प्रेम में असफलता हमें समझदार भले ही बना दे, लेकिन समर्पण का भाव और सुनहरे सपने सजाने वाली कल्पना कहीं गुम हो जाते हैं। पहले सी निश्छलता और ज़रा सी बात पर खुलकर हंसने का मोल दुनिया की कोई जीत नहीं चुका सकती; और हमें लगता है कि अब हम बेहतर हैं, ज़्यादा मज़बूत हैं। हम पहले मूर्ख थे, क्यूंकि हम भरोसा करते थे, हम गलतियां करते थे, सपने देखते थे, खिलखिलाकर हँसते थे, भावुक होते थे, रो पड़ते थे।

दोबारा चोट खाने का डर अपनी जगह है, लेकिन चोट खाकर सँभलने के बाद फिर से सपने देखने और भरोसा करने की हिम्मत अपनेआप में कहीं ज़्यादा बड़ी है। मैं बदलना नहीं चाहती। भगवान मुझे और हम सबको ये हिम्मत दे।