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Monday, February 21, 2011

बेखुदी

खामोश-सी रातों में तन्हाई आकर पसर जाती है,
कई रोज़ से आँखों में नमी-सी उतर आती है |

कुछ देखे- कुछ अनदेखे-से, पलकों में जो क़ैद हैं,
अधूरे ख़्वाबों के दरम्याँ, नींद आकर गुज़र जाती है |

तुमसे पूछे बगैर हमने, दे दिए थे जो तुम्हें,
हर दिशा में उन वादों की आवाजें बिखर जाती हैं |

जब भी बैठी आँखें मूंदे, उनमें तुम्हारा आना हुआ,
मेरे मन की सारी गलियाँ रोशनी से भर जाती हैं |

हर पदचाप, हर आहट पर, चौंक-सी उठती हूँ मैं,
उम्मीद की एक दस्तक और, घर की हर शै सँवर जाती है |

 दुनिया की भीड़ में, जाना-सा एक चेहरा देखा था,
मेरी यादों में अक्सर उसकी तस्वीर-सी उभर आती है |

कई बार सोचती हूँ, कहीं दूर चली जाऊं,
पर, शहर की हर एक डगर तुम्हारे नगर जाती है | 

Thursday, February 10, 2011

bas yoon hi..

apne un doston ke liye jinse mil paana ab utna sahaj nahin..

कैसा अजीब ये लम्हा है,
हम भीड़ में हैं और तनहा हैं!!

कैसे सहे दुनिया के सितम,
दिल तो नन्हा बच्चा है !!

लाखों तारों के बीच जैसे,
आकाश में रहता चंदा है!!

तारों में भी चमक नहीं,
ये कैसा गोरखधंधा है??

हिम्मत न हार ऐ मेरे दिल,
तू तो अल्लाह का बंदा है!!

कैसी मुश्किल है आन पड़ी,
सबका हाल equally गन्दा है!! :P

Thursday, February 03, 2011

कौन कहता है...

कौन कहता है कि प्यार सिर्फ एक बार होता है और एक से ही होता है? कौन कहता है कि समय सब कुछ भुला देता है? जब पहली बार शहर बदला तो लगा कि संवेदनहीनता घर करने लगी है. एक समय पर तो लगने लगा कि सुख-दुःख सबसे ऊपर उठ चुकी हूँ. नए लोगों में से किसी को अपने दिल के करीब रखा नहीं और पुराने भी सभी रिश्तों से दूर होती गयी. फिर दूसरी बार शहर बदला और सबकुछ बेमानी लगने लगा. इस बार संवेदनशीलता का ज्वार आया. मानना ही पड़ा कि कभी किसी से दूर गयी ही नहीं थी बल्कि जितनी भी दूर आती गयी, किसी न किसी को अपने सफ़र में साथ लाती गयी. प्यार करती गयी और झुठलाती गयी. समय के साथ-२ रंग पक्के ही होते गए. अब अपनी हार मान ली है, अब रुक जाना चाहती हूँ.. लेकिन यह भी एक कठोर सत्य है कि मेरे रुकने से दुनिया रुकेगी नहीं, वो चलती ही जाएगी, और अगर मैं रुकी, तो पीछे छूट जाऊँगी. 
अपनी बुद्धिहीनता पर, अपने आप को सबसे ऊपर समझने की मूर्खता पर, अब हंसी आती है. अपनी निरीहता पर अब तरस आता है, और ये कहीं न कहीं आज हम सबकी हालत है. जीवन बहुत कठोर है और हम कठोरता में उससे भी आगे निकल जाना चाहते हैं. हम रुकना नहीं चाहते क्यूंकि हम डरते हैं, वास्तविकता को स्वीकारने से. हमें समझना होगा कि ये होड़ हमें कहीं नहीं ले जाएगी.
दुनिया को देखते- समझते हुए अभी कुछ ही अरसा हुआ है और काफी परिभाषाएं टूटने लगी हैं. ये बहुत ही पीड़ादायी है- जैसे कि लोग तो ये भी कहते थे कि घर एक ही होता है.