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Wednesday, August 15, 2012

पापा जैसे और भी हैं!

लड़कियां वैसे ही पापा की दुलारी होती हैं और मैं तो उनकी पहली संतान हूँ। बचपन से मम्मी के मुंह से किस्से सुनती रही हूँ कि कैसे पापा दूर से ही हम लोगों का रोना सुन लेते थे जबकि सबको लगता था कि ये उनका कोई वहम है। 
आजतक जिस किसी ने भी मुझे सुबह उठाने की कोशिश की है, वो मेरा दुश्मन ही रहा है, सिर्फ पापा को छोड़कर। उनकी तकनीक ही ऐसी रही है। बहुत धैर्य चाहिए इसके लिए। सिरहाने बैठकर वो कुछ भी पूछना शुरू कर देते हैं। शुरुआत काफी छोटे-2 सवालों से होती है जिनके जवाब मैं नींद में भी दे सकूँ, जैसे कि : मैं किस क्लास में गयी हूँ। नींद में भी लगता है कि कैसे पापा को नहीं पता? ये तो पता होना ही चाहिए और फिर जवाब तो देना ही देना होता है। फिर कुछ और बातें, और अंततः सोने की हर कोशिश छोड़कर उठ ही जाना और खुद को किसी वार्तालाप के मध्य में पाना। कुलमिलाकर पापा की जीत और मेरे हर ड्रामे की हार।
मम्मी का तरीका हमेशा दूसरा ही रहा है। दो बार कहेंगी उठ जाओ और तीसरी बार दूर से ही आवाज़ लगाकर कहेंगी, "उठ रही हो या आकर बताएं?" उसके बाद मजाल है कि दोबारा सो सकें? जाड़ों में तो और भी आसान होता है, रजाई तहाकर रख दो, बस।
पापा को हमारे गुस्से से भी डर  लगता है, आमतौर पर जो कहो, मासूम बच्चे की तरह मान लेते हैं। घुमाने - फिराने और खिलने - पिलाने के बेहद शौक़ीन।
खैर, पापा पर अचानक प्यार आने की वजह है कि मैंने हालफिलहाल उन जैसा कोई व्यक्ति देखा और कुलमिलाकर अनुभव काफी अच्छा रहा। पापा को आदत है, ट्रेन में हमेशा कोई न कोई बात छेड़ देने की जिसमें आसपास बैठा हर व्यक्ति शामिल हो जाता है। विषय राजनीति, देश के वर्तमान हालात या फिर कुछ भी हो सकता है और फिर थोड़ी ही देर में कोई अजनबी नहीं रहता, सब एक परिवार हो जाते हैं।
कभी-2 लगता है कि पापा ही हैं जो पूरे देश को एक कर सकते हैं लेकिन कभी-2 उनकी इस आदत पर गुस्सा भी आता है कि आखिर क्या ज़रुरत है अजनबी लोगों से इतना मित्रवत होने की?
कुछ दिन पहले रक्षाबंधन पर घर जा रही थी जब किसी ने दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मेरा बटुआ चुरा लिया। उस समय मैं अपनी बोगी में थी। मेरा मूड काफी ख़राब था। शुरू में तो लोगों ने वजह पूछी, उसके बाद अपने कामों में रम गए। मेरा मूड वैसा ही रहा। दोबारा से सारे कार्ड्स बनवाना मुसीबत लग रहा था। आखिर कुछ ही दिनों के लिए घर जा रही थी, उसमें भी करने के लिए काम बढ़ गए।
उसी बोगी में पुराने लखनऊ का एक व्यापारी बैठा था। उसने मेरे चेहरे पर चिंता देखी। अचानक सबका ध्यान खींचते हुए बोला, "कितने पैसे थे आपके बटुए में?", मैंने बताया : "आठ सौ". उसने कहा, "बस इतनी सी बात के लिए इतना परेशान हैं? अभी हम सब सौ-सौ रुपये जोड़े देते हैं, मगर आप अब सामान्य हो जाइये! खुश रहिये। कुछ खाने के लिए चाहिए तो संकोच मत कीजियेगा, हम खरीद देंगे।" मैं थोड़ा सकपका गयी। मैंने कहा, "ऐसी कोई बात नहीं है, पैन कार्ड वगैरह था, दोबारा बनवाना होगा" । फिर उसने मुझसे डेबिट कार्ड वगैरह के लिए पूछा तो मैंने बताया कि वो सब मैं ब्लाक करा चुकी हूँ। उसने कहा, "फिर चिंता की क्या बात है? सब कुछ तो आपने कर ही दिया। पर्स तो वापस मिलेगा नहीं" । फिर उसने एक-दो चीज़ें और पूछीं और मुझे बताया कि पैन कार्ड के लिए क्या करना है। इसके बाद बातें किसी और दिशा में मुड़ गयीं।
थोड़ी ही देर बाद हम लोगों ने देखा कि वहां पर एक व्यक्ति एक सेब को अपने हाथों से तोड़ने की कोशिश कर रहा है और उसके दोस्त उससे मज़े ले रहे हैं। स्थिति ये थी कि उस व्यक्ति को भूख लगी थी। सेब एक ही था और खाने वाले चार। उस व्यापारी ने कहा कि वो मदद कर देगा लेकिन बदले में उसे भी सेब में हिस्सा चाहिए। खैर, वो लोग मान गए। उस व्यक्ति ने अपनी जेब से एक कार्ड निकाला जो कि उसने बताया कि कोई काम का कार्ड नहीं है। उसे वो ऐसी ही चीज़ों के लिए रखता है। फिर बड़ी बारीकी से उसने सेब के कई हिस्से किये और फिर वहां मौजूद हर व्यक्ति ने उसमें से एक - एक टुकड़ा लिया।
कह लीजिये कि उस व्यक्ति के पास हर ताले की चाबी थी। हर बात के लिए एक बात थी। थोड़ी ही देर में वहां कोई अजनबी नहीं था। मेरा गुस्सा गायब था और मेरी एक रात खराब होने से बच गयी थी।

Friday, July 13, 2012

मैं, घाटन की लड़की

(सआदत हसन मंटो की मशहूर कहानी बू से प्रेरित)
 न थे हम वादा,
न थे हम प्रेम,
हम थे बस वो
खामोश पल, जो
गिरा था साथ,
बूंदों की लड़ियों के,
उस बारिश में, जिसमें
नहा रहे थे पीपल के पत्ते |
हम नहीं थे छल भी,
हम थे, हम हैं, हम रहेंगे,
एक याद, एक अनुभव,
एक कसक, एक गंध,
एक-दूसरे के लिए
जो हर बारिश में,
जिसमें कि नहाते हैं पत्ते,
हो उठते हैं ताज़ा, यकायक
और दिलाते हैं एहसास
बाद सपने के टूटने के
कि नहीं है मुझे अधिकार
यूं ही लजा जाने का,
न करने का शिकायत,
क्यूंकि, देने पड़ सकते हैं
मुझे कुछ जवाब,
क्यूंकि, नहीं हुआ था तय
शब्दों में कुछ भी,
क्यूंकि, एक दुनिया है
उस पल से परे भी
होते हैं जिसमें
महत्त्वपूर्ण लोग
और मैं हूँ एक अनाम
लेकिन असली
घाटन की लड़की.

Sunday, April 15, 2012

नज़र न लगे!!!

सोचा था, कई बार से गद्य लिख रही हूँ, इस बार कोई कविता डालूंगी मगर आज कुछ ऐसा हुआ कि फिर मन बदल गया.
पिछले काफी समय में मैंने कई टूटती-जुडती प्रेम कहानियां और सफल-असफल शादियाँ देखी हैं. उन्हें देखकर जाना है कि जो भी जैसा भी है, उसके पीछे सबसे अहम् कारण परिवार है. साधारणतः लोगों को अपने परिवार और प्यार में से एक को चुनना था और उन्होंने परिवार को चुना. कई लोगों ने खुद से जुडी बातें अपने परिवार से साझा नहीं की, ये सोचकर कि वो नहीं समझेंगे, किसी ने ये सोचकर कुछ नहीं कहा कि परिवार को दुःख पहुंचेगा. किसी ने चिल्ला-२ कर अपनी बात सामने रखी, किसी ने समझाना चाहा. अमूमन लोगों को अपने परिवार से शिकायतें ही रहीं. परिवार कभी आपका बुरा नहीं चाहता. समस्याएं तब आती हैं जब परिवार के लिए आपकी ख़ुशी की परिभाषा और आपके खुद के लिए ख़ुशी की परिभाषा मेल नहीं खाती.
आम तौर पर दुनिया देखने के बाद आपको अपनी चीज़ों की कद्र करना आ जाता है और अगर कद्र पहले से भी हो तो भी और बढ़ ही जाती है. ये नहीं कहूँगी कि मुझे अपने परिवार से कभी कोई शिकायत नहीं रही; मगर इतना कह सकती हूँ कि वो मेरे साथ-२ बढे हैं. २५ साल की रितिका की मम्मी वो नहीं हैं जो १५ साल की रितिका की मम्मी थीं. कई बार ऐसा लगा कि लोगों की बातें कितने आराम से सुन लेते हैं मगर समय के साथ-२ उन्होंने मुझे भी सुनना सीखा है. सबको और मुझको सुन लेने के बाद जो सही है, वो करना सीखा है.
मुझे ख़ुशी है कि उन्होंने चीज़ों को धीरे-२, मगर मुझसे एक कदम आगे रहते हुए सीखा है. इससे मुझे भी समझ विकसित करने का पूरा मौका मिला है.
मैं उनके सामने बोल सकती हूँ, बिना किसी डर के, ये मानकर कि वो मुझे सुनेंगे. मेरे बारे में फैसले लेने से पहले मुझे पूछेंगे. जब-२ बात करते हुए मुझे परेशां पाएंगे, तब-२ रोज़ मेरे तनाव को हल्का करने के लिए हलकी-फुलकी बातें करते रहेंगे या मेरा मनोबल बढ़ाएंगे. आमतौर पर हमारी परिभाषाओं में विरोधाभास  नहीं होते मगर जब-२ हमारी परिभाषाएं मेल नहीं खातीं, हम उन्हें बदल लेते हैं, बिना कोई बात अपने अहम् पर लिए. हमारे लिए हम ज्यादा ज़रूरी हैं.
मैं सचमुच बेहद भाग्यशाली हूँ. पूरे दिल से चाहती हूँ कि इस सम्बन्ध को किसी की नज़र न लगे.
मम्मी-पापा, मुझे गर्व है आप पर! 

Saturday, March 24, 2012

फुर्सत या आज़ादी?

रोज़मर्रा की ज़िन्दगी मुझसे मेरे सारे शौक छीने लिए जा रही है. पहले पढाई वाले दौर को अपनी व्यस्तता के चलते कोसा करती थी और अब नौकरी वाले दौर को उससे भी ज्यादा कोसती हूँ. शायद इसमें सबसे ज्यादा बुरा ये लगता है कि इस व्यस्तता की आदी होती जा रही हूँ. काफी-काफी समय गुज़र जाता है कुछ नया लिखे हुए. डर लगता है कि कहीं ये समयांतराल बढ़कर सालों में न बदल जाये या लिखने का शौक ही न छूट जाये.
न रोज़ की एक जैसी ज़िन्दगी में लिखने लायक नए-२ अनुभव मिलते हैं और न ही समय. समय है तो थोडा आराम कर लेने का मोह आड़े आ जाता है. कुछ लिखने लायक है, इच्छा भी है तो समय नहीं; समय है तो दिमाग खाली.
बस थोड़ी-सी फुर्सत की चाह है और कुछ जंग लगी हुई रचनात्मकता को समय-२ पर घिसते रहने की जिद जो अपने को मशीन से अलग बता पाती हूँ. आज बहुत दिनों के बाद जो थोड़ी फुर्सत हुई तो समझ ही नहीं आया कि उसका क्या किया जाये. पता ही नहीं चल रहा कि फुर्सत में हूँ या किसी तरह की आज़ादी मिली है.
बचपन में दोनों के मायने बहुत अलग लगा करते थे. फुर्सत वो थी जो मम्मी को होती थी, घर के सारे काम निपटा लेने के बाद. आज़ादी वो थी जो गांधीजी ने हमें दिलाई थी; जैसा कि किताबों में लिखा हुआ था. उस हिसाब से तो आज़ादी ज्यादा कीमती चीज़ हुई क्यूंकि वो बहुत मुश्किलों से और बहुत समय लगने पर मिली थी. सिर्फ इतना ही नहीं, वो किसी और को हमें दिलानी पड़ी थी. फुर्सत कोई किसी को देता या दिलाता नहीं है. एक और फर्क ये भी लगता था कि आजादी सबके काम की चीज़ है जबकि फुर्सत सिर्फ बड़ों को चाहिए होती है.
आज की बात और है. अब फुर्सत मुझे भी चाहिए होती है. शायद मैं भी बड़ी हो गयी हूँ. और आजादी कीमती तो अब भी लगती है और मुश्किल से मिलने वाली भी, मगर उतनी भी नहीं जितनी पहले लगा करती थी. अब उसके बहुत से रूप सामने आ गए हैं. अब हर किसी को आज़ादी चाहिए और अपने किस्म की चाहिए. एक मिल गयी तो दूसरी भी चाहिए. पहले सिर्फ अंग्रेजों से चाहिए थी.
शायद मुझे जिस किस्म की आज़ादी चाहिए वो फुर्सत से काफी मिलती-जुलती है तभी मुझे दोनों एक से लग रहे हैं. शायद मुझे कभी-२ फुर्सत से रहने की आज़ादी चाहिए: जब मैं लिख सकूं, पढ़ सकूं, सोच सकूं, मन भर सो सकूं और बाकी सारे शौक पूरे कर सकूं. शायद मुझे आजादी से रहने को फुर्सत चाहिए. सवाल ये है कि मुझे इस किस्म की, मेरे किस्म की आजादी कौन दिलाएगा? शायद आज़ाद भारत में मुझे मेरे किस्म की आजादी लेने और पाने की आजादी है. और कुछ नहीं तो लिखने की आज़ादी तो है ही. और भी न जाने किन-२ किस्मों की आज़ादियाँ हैं जिन्हें मैं आपने किस्म की आज़ादी पाने के लिए इस्तेमाल कर सकती हूँ. ये सब करना होगा मुझे खुद. और ये सब करने के लिए चाहिए फुर्सत जो कि फिलहाल मेरे पास है; और जब मेरे पास फुर्सत है ही, तो क्यूँ न मैं इसे कुछ समय आज़ादी से रहने में, सुकून से रहने में, कुछ लिखने में, कुछ पढने में और बाकी सारे शौक पूरे करने में खपाऊं??   

Monday, March 05, 2012

होली.. मेरा पसंदीदा त्यौहार!!

आप भले ही होली खेलते हों या नहीं, मगर ये बात तो ज़रूर मानेंगे कि इस दिन की हर बात बाकी दिनों से बिलकुल जुदा होती है. मसलन : इस दिन मेरे घर में सबसे ज्यादा शरारती मेरे मम्मी-पापा होते हैं और हम सब उनसे जान बचाकर भाग रहे होते हैं. स्कूल या काम पर जाने में अधमरे हो जाने वाले लोग सुबह सबसे पहले उठकर तैयार हो जाते हैं. जब आप लिपे-पुते होने के बाद भी गुझिया या समोसे उठाकर खा लेते हैं तो डांट नहीं पड़ती बल्कि और लाकर सामने रख दिए जाते हैं.
इस दिन अपने दुश्मन से भी कुछ भी करवा लो, प्यार-२ में वो कर देगा. और तो और जो लोग शादियों में नहीं नाचते उन्हें इस दिन ज्यादा से ज्यादा दो-चार बार कहने की ज़रुरत होती है. गले मिलना तो इस त्यौहार का सबसे प्यारा हिस्सा है. आपका फेंका हुआ गुब्बारा किसी को कितनी जोर से चिपक जाये, एक बार बस 'बुरा न मानो, होली है!' कह दीजिये, चेहरे के भाव ही बदल जायेंगे. वैसे, चेहरा पहचान में आता भी किसका है. पूरे शरीर में एक वर्ग मिमी. का क्षेत्रफल भी बिना रंगा हुआ नहीं बचा होगा, फिर भी लोग रंग लगायेंगे. साल भर न हम नहाने पर इतनी मेहनत करते हैं और न ही निशानेबाजी का इतना अभ्यास, जितना कि इस एक दिन में हो जाता है.
लोगों को गुस्सा दिलाते-२ थक जायेंगे, मगर इस दिन कोई बुरा न मानेगा. ऐसे मौके रोज़-२ नहीं आते हैं.
होली खेलने के बाद कमरे में घुसने की इजाज़त तो होती नहीं है तो छत पर धूप में इकट्ठे होकर हमें नहाने के लिए अपनी बारी का इंतज़ार करना होता है. सिर्फ तभी ऐसा होता है जब हम कपड़े उन्हें पहने-२ सुखाते हैं या कहिये कि खुद धूप में सूख रहे होते हैं. जब कभी ये इंतज़ार लम्बा हो जाता है, उस दिन हमारी छत पर लगे नल के दिन बहुरते हैं. घर के इंजिनियर मिलजुलकर उसकी मरम्मत करते हैं और फिर छत पर नहाया जाता है.
किसी को भी अच्छे दिखने कि परवाह या होड़ नहीं होती होली पर. जब हम नहाने के बाद भी गुलाबी या नीले दिख रहे होते हैं बहुत दिनों तक तो ये सोचकर बेपरवाह हो जाते हैं कि सभी ऐसे ही दिख रहे हैं, या फिर, देखने वाले को भी तो पता चले कि हमने कितनी होली खेली है. फिर भी, गंदे होने के बाद साफ़ दिखने के सबके अपने अनोखे नुस्खे होते हैं. इनका अगर संग्रह किया जाये तो अच्छी-खासी मोटी किताब बनेगी.
आम तौर पर हम छुट्टियों के लिए बीमार पड़ने का बहाना बनाते हैं, मगर इस दिन हम मनाते हैं कि कुछ भी हो जाये बस बीमार न पड़ें जिससे पूरे मज़े लिए जा सकें.
होली का दिन हर बार बिलकुल पहले जैसा होता है. वही क्रिया-कलाप. सुबह उठकर थोडा खा पीकर बदन में तेल लगाना, पुराने कपड़े पहनना, होली खेलना, नहाना, खाना खाना (पूरी-सब्जी) और थक कर सो जाना. पता होता है कि क्या-२ होगा मगर फिर भी हर बार नया-नया ही होता है. हर तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ नज़र आती हैं. 
कल रात घर के लिए रवाना हो रही हूँ. उम्मीद करती हूँ कि इस बार की होली भी हमेशा की तरह यादगार रहेगी. आप सभी को होली की शुभकामनायें! :)

Monday, January 09, 2012

एक याद...

कितनी अजीब बात है.. आप खाने-पीने के शौक़ीन हों या न हों, आपकी ज़िन्दगी की सबसे हसीं यादें अमूमन खाने-पीने की चीज़ों से जुडी होती हैं. एक दिन यूं ही अचानक ज़िक्र छिड़ा उन चीज़ों का जिनके स्वाद का लुत्फ़ हमने बचपन में खूब उठाया मगर आज के समय में उन्हें कोई पूछता भी नहीं (दरअसल उनके बारे में लोगों को पता ही नहीं). ये बात भी सामने आयी कि आज भी हम उनके लिए उतने ही लालची हैं मगर या तो जानते नहीं कि उन्हें अब कैसे पाया जाये, या इतनी फुर्सत नहीं कि उनके बारे में सोचा भी जाये.
कुछ ऐसे ही होते थे 'बजरंगी के चने' भी. बजरंगी, एक बूढा व्यक्ति, हाथों में गज़ब का हुनर. दिन में स्कूल में मीठे-चटपटे चने बेचने वाला; शाम को वही चीज़ें राजा बाज़ार (लखनऊ में मेरा मोहल्ला) की गलियों में आवाजें लगाते हुए घूम-२ कर बेचने वाला. याद बेहद धुंधली हो चली है. न तो बजरंगी की शक्ल याद है, न आवाज़ और न ही वो शब्द जिनके कानों में पड़ते ही घर के बड़े तक उतावले हो उठते थे. जी हाँ, एक सड़क पर बिकने वाली चीज़ जो घर में भी शौक से लायी और खायी जाती थी, सो किसी को हक नहीं था की पैसे मांगने पर डांट सके.
वो तीखे चने.. अच्छे-अच्छों के आँख-नाक से पानी निकाल लाने वाले मगर लालच रहता था वहीं का वहीं. और कुछ याद हो न हो वो स्वाद और उन नारंगी-लाल से चनों की शक्ल अच्छी तरह याद है.
पुरानी ही बात है ये भी कि किसी को पापा से कहते सुना था कि बजरंगी मर गया, इस प्रश्न के जवाब में कि आजकल वो दिखाई नहीं दे रहा. पापा को या उस व्यक्ति को कितना अफ़सोस था, याद नहीं, मगर मुझे था तब भी जबकि मरने का मतलब भी ठीक से पता नहीं था.
इस घटना के बाद वो स्वाद दोबारा नसीब नहीं हुआ. वजह कुछ दिनों पहले ही पता चली. वो हुनर सिर्फ बजरंगी के ही पास था, और किसी के भी पास नहीं, यहाँ तक कि उसके अपने बेटे के पास भी नहीं. इस बार ज्यादा बड़ा अफ़सोस हुआ. मेरी इस सोच को धक्का लगा जो ये कहती थी कि जो सामान इस दुकान पर नहीं मिला वो किसी और पर मिल जायेगा. मेरा मन आज भी ललचाता है मगर अब ये असंतुष्टि हमेशा की है.
बदलते समय के साथ कितना कुछ नया देखने को मिल रहा है मगर बहुत कुछ ऐसा है जो पीछे छूटता जा रहा है. हम ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में इतने व्यस्त हैं कि हमें फुर्सत ही नहीं दो पल को पीछे मुड़कर देखने की. वो बेहद आसान-सी खुशियाँ; आज के समय में अस्तित्वहीन; और हम कभी समझा भी नहीं पाएंगे कि बात किस बारे में कर रहे हैं. आने वाले समय में कोई उन्हें जानेगा भी नहीं और हम भी शायद जल्दी ही भूल जायें.
काफी देर से ही सही, मगर बजरंगी को श्रद्धांजलि!