दुनिया में कई चीज़ें ऐसी हैं जिन्हें मैं बर्दाश्त कर ही नहीं सकती। बलात्कार, बलात्कारी, किसी भी तरह का शारीरिक शोषण, महिलाओं की इज्ज़त न करना, छेड़छाड़ एवं इन्हें जायज़ ठहराने वाले या शह देने वाले बुद्धिहीन लोग ऐसी ही चीज़ों में शुमार हैं।
अखबारों में आएदिन तमाम खबरें छपती रहती हैं मगर बलात्कार की घटनाएँ मुझे मानसिक तौर पर हिलाकर रख देती हैं। कई कारण हैं इसके पीछे; यह भी कि मैं खुद एक महिला हूँ। मैं और बातों पर नहीं जाऊँगी, बस, अपने बचपन की एक याद साझा करना चाहूँगी।
मैं तब स्कूल में पढ़ती थी। हमारे घर में बर्तन मांजने एक महरी आती हैं। चूँकि वो काफी पुरानी हैं इसलिए मम्मी की खासी चहेती भी हैं। मैं खाना खाने में काफी समय लेती हूँ। स्कूल से आने में मुझे काफी देर हो जाया करती थी इसलिए वो जब भी घर आतीं, मैं खाना खा ही रही होती थी। अमूमन उनके काम निपटाने तक मैं खाना खा ही रही होती थी तो मेरे कुछ बर्तन बचे रह जाते थे। इसके लिए वो जब-तब मुझे कुछ कहतीं, मगर मेरी लाख कोशिशों के बावजूद मैं खाना समय पर ख़त्म न कर पाती। कभी एक कटोरी-चम्मच या कभी एक प्लेट बची रह ही जाती।
एक दिन पता नहीं उन्हें क्या सूझी, वे बडबडाते हुई आयीं कि कैसे ये लड़की इतना ज़रा-2 सा खा पाती है; न जाने इसके मुंह का छेद कितना छोटा है। मेरे सामने आकर बैठ गयीं, मेरे दोनों हाथ बलपूर्वक पकड़े और चम्मच में ढेर-2 सारा दाल-चावल भरकर ज़बरन मेरे मुंह में ठूंसने लगीं। मैं उतना एकसाथ नहीं खा सकती थी। मैंने उन्हें कहा कि मैं खुद खा लूंगी, वो नहीं मानीं; मैंने कहा कि मैं उगल दूँगी, उन्होंने अनसुना कर दिया। मैंने अपना मुँह पूरी ताक़त से बंद कर लिया लेकिन उन्होंने तब भी अपना उपक्रम जारी रखा। मैंने गुस्सा किया, विनती की, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं। मैं बहुत लाचार महसूस कर रही थी।
सभी इस तमाशे का पूरा मज़ा उठा रहे थे; सब हंस रहे थे। मैं भरपूर गुस्से में थी, मेरी आँखों में आंसू थे। वे पूरा खाना समाप्त करवा कर ही उठीं; एकदम विजयी भाव से। मैं एकदम हारी हुई सी बैठी थी। मेरा आत्म-सम्मान छिन्नभिन्न था। इस बात का भी दुःख था कि किसी ने एक बार भी क्यों नहीं कहा कि रहने दो, वो खा लेगी। खुद पर गुस्सा आ रहा था कि ऐसे कैसे कोई मेरे साथ ज़बरदस्ती कर सकता है? उसके बाद क्या घटा, ये उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, उल्लेखनीय बात ये है कि मैं उस घटना को कभी नहीं भूली। मुझे आज भी उस बात पर गुस्सा आता है। वह मानसपटल पर कहीं छपी हुई-सी है।
ये बस ज़बरदस्ती का एक छोटा-सा उदहारण भर है। बलात्कार इससे कहीं ज्यादा बड़ी घटना है। पीड़िता पर जो बीतती होगी, उसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। मन में हमेशा-2 के लिए छप जाने वाला वो गुस्सा, वो बेबसी, दुःख, वो सदमा किसी का भी जीवन हमेशा के लिए बदल देने के लिए काफी हैं। रही-सही क़सर हमारे समाज में व्याप्त दोहरे मापदंडों से पूरी हो जाती है। किसी के क्षणिक उन्माद की सजा कोई ज़िन्दगी भर क्यों भुगते? मैं बलात्कार के खिलाफ हूँ।
अखबारों में आएदिन तमाम खबरें छपती रहती हैं मगर बलात्कार की घटनाएँ मुझे मानसिक तौर पर हिलाकर रख देती हैं। कई कारण हैं इसके पीछे; यह भी कि मैं खुद एक महिला हूँ। मैं और बातों पर नहीं जाऊँगी, बस, अपने बचपन की एक याद साझा करना चाहूँगी।
मैं तब स्कूल में पढ़ती थी। हमारे घर में बर्तन मांजने एक महरी आती हैं। चूँकि वो काफी पुरानी हैं इसलिए मम्मी की खासी चहेती भी हैं। मैं खाना खाने में काफी समय लेती हूँ। स्कूल से आने में मुझे काफी देर हो जाया करती थी इसलिए वो जब भी घर आतीं, मैं खाना खा ही रही होती थी। अमूमन उनके काम निपटाने तक मैं खाना खा ही रही होती थी तो मेरे कुछ बर्तन बचे रह जाते थे। इसके लिए वो जब-तब मुझे कुछ कहतीं, मगर मेरी लाख कोशिशों के बावजूद मैं खाना समय पर ख़त्म न कर पाती। कभी एक कटोरी-चम्मच या कभी एक प्लेट बची रह ही जाती।
एक दिन पता नहीं उन्हें क्या सूझी, वे बडबडाते हुई आयीं कि कैसे ये लड़की इतना ज़रा-2 सा खा पाती है; न जाने इसके मुंह का छेद कितना छोटा है। मेरे सामने आकर बैठ गयीं, मेरे दोनों हाथ बलपूर्वक पकड़े और चम्मच में ढेर-2 सारा दाल-चावल भरकर ज़बरन मेरे मुंह में ठूंसने लगीं। मैं उतना एकसाथ नहीं खा सकती थी। मैंने उन्हें कहा कि मैं खुद खा लूंगी, वो नहीं मानीं; मैंने कहा कि मैं उगल दूँगी, उन्होंने अनसुना कर दिया। मैंने अपना मुँह पूरी ताक़त से बंद कर लिया लेकिन उन्होंने तब भी अपना उपक्रम जारी रखा। मैंने गुस्सा किया, विनती की, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं। मैं बहुत लाचार महसूस कर रही थी।
सभी इस तमाशे का पूरा मज़ा उठा रहे थे; सब हंस रहे थे। मैं भरपूर गुस्से में थी, मेरी आँखों में आंसू थे। वे पूरा खाना समाप्त करवा कर ही उठीं; एकदम विजयी भाव से। मैं एकदम हारी हुई सी बैठी थी। मेरा आत्म-सम्मान छिन्नभिन्न था। इस बात का भी दुःख था कि किसी ने एक बार भी क्यों नहीं कहा कि रहने दो, वो खा लेगी। खुद पर गुस्सा आ रहा था कि ऐसे कैसे कोई मेरे साथ ज़बरदस्ती कर सकता है? उसके बाद क्या घटा, ये उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, उल्लेखनीय बात ये है कि मैं उस घटना को कभी नहीं भूली। मुझे आज भी उस बात पर गुस्सा आता है। वह मानसपटल पर कहीं छपी हुई-सी है।
ये बस ज़बरदस्ती का एक छोटा-सा उदहारण भर है। बलात्कार इससे कहीं ज्यादा बड़ी घटना है। पीड़िता पर जो बीतती होगी, उसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। मन में हमेशा-2 के लिए छप जाने वाला वो गुस्सा, वो बेबसी, दुःख, वो सदमा किसी का भी जीवन हमेशा के लिए बदल देने के लिए काफी हैं। रही-सही क़सर हमारे समाज में व्याप्त दोहरे मापदंडों से पूरी हो जाती है। किसी के क्षणिक उन्माद की सजा कोई ज़िन्दगी भर क्यों भुगते? मैं बलात्कार के खिलाफ हूँ।