Search This Blog

Wednesday, February 20, 2013

साइकिल से जुड़ी कुछ यादें


स्कूली पढाई के दौरान आने वाले दो महत्त्वपूर्ण पड़ाव यानि कि हाई स्कूल और इंटरमीडिएट के दौरान मैं एक ऐसे स्कूल में पढ़ती थी जहाँ पढाई के आलावा विद्यार्थियों की और किसी गतिविधि पर ध्यान नहीं दिया जाता था। शायद 'हतोत्साहित करना' कहना ज्यादा उपयुक्त रहेगा। इस बारे में हम कभी और बात करेंगे।

हम सुबह से लेकर शाम तक स्कूल में होते थे और बस्तों का वज़न तो पूछिए ही मत! साइकिल के कैरियर को एक सीमा तक ही खींचा जा सकता था, उससे ज्यादा खींचने की कोशिश करने से वो ख़राब हो चुका था। बस्ता फिट जो नहीं होता था। उसे जैसे तैसे फंसा के मैं स्कूल जाती थी।

कैरियर ख़राब होने की वजह से बस्ता जब-तब एक ओर को लटक जाता था, (गिर नहीं पाता था क्यूंकि बड़ी तिकड़मों के साथ फंसाया गया होता था) और उसके वज़न से साइकिल का संतुलन बिगड़ जाता था। मैं साइकिल छोड़कर किनारे खड़ी हो जाती थी। आखिर, साइकिल प्यारी थी, मगर जान से ज्यादा नहीं। (वो दूसरी आ सकती थी, मगर मैं नहीं!) फिर, बस्ते के साथ साइकिल मुझसे कभी नहीं उठती थी। सड़क पर कोई न कोई मदद करने आ ही जाता था और तब फिर स्कूल की ओर जाया जाता था। लगभग रोज़ ही ऐसा होता था।

थोड़ा और पीछे आते हैं। तब मैं साइकिल चलाना सीख ही रही थी, अपने घर के पास वाले पार्क में। वहां और लोग भी आते थे क्रिकेट खेलने। मुझे आज भी याद है कि एक दिन साइकिल चलाते हुए मैं जिस दिशा में जा रही थी, एक लड़का फ़ील्डिंग करते हुए उसी तरफ भागा जा रहा था। मैं उसे 'हटो-हटो' कहती रह गयी और वही हुआ जिसका डर था। ज़मीन पर पहले वो लड़का गिरा, फिर उसके ऊपर मेरी साइकिल, और साइकिल के ऊपर मैं। उसने कराहते हुए मुझसे पूछा, "आपको कहीं चोट तो नहीं लगी?" और मैंने भी जवाब दिया, "नहीं!"

सुबह-२ साइकिल चलाते हुए गोमती किनारे जाना, यह एक ऐसा सुखद अनुभव होता था जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। सबकी तरह मैं भी अनगिनत बार गिरी, न जाने कितनी चोटें खायीं।

उस साइकिल के बारे में जो मेरी आखिरी याद है, वो है उसका चोरी होना।