यूँ तो इस बार बारिश का मौसम पहाड़ी इलाकों के लिए काफी त्रासद रहा, लेकिन फिर भी, देश के कई हिस्से ऐसे हैं जहाँ पर मेरे जैसे कई लोग अब भी अच्छी बारिश के लिए तरस रहे हैं। मैं बात कर रही हूँ गुडगाँव की। मुंबई जैसे शहरों की बारिश पर काफी कुछ लिखा गया है, मगर गुडगाँव नया है। इस पर प्रकाश डालूंगी थोड़ी देर में।
हाँ तो, मैं जानती हूँ कि बारिश के लिए कुछ ज्यादा ही जल्दी बेसब्री दिखा रही हूँ, अभी तो जुलाई की शुरुआत भर है। ये बेसब्री बिलकुल वैसी ही है जैसे गर्मियों का आभास मिलते ही, "अब आम आयेंगे", सोच कर खुश हो जाना, जबकि मेरी पसंदीदा दशहरी तो गर्मियों के बिलकुल अंत में आती है। मेरे ख्याल से अब समझना आसान हो गया होगा।
गर्मियां मुझे सिर्फ आम, लीची और छुट्टियों की वजह से ही सुहाती थीं, जिसमें से छुट्टियों का योगदान ही सबसे ऊपर होता था। अब तो वो बात नहीं रही। जाड़े कभी अच्छे लगे ही नहीं। बरसात हमेशा से अच्छी लगती रही है, बिना कोई शर्त।
अब आते हैं गुडगाँव पर। ज्यादा समय नहीं हुआ यहाँ पर रहते, मगर मैंने देखा है कि जब सभी जगह अच्छी बारिश हो रही होती है, तब यहाँ नहीं होती, और जब यहाँ होती है तब और कहीं नहीं होती। इसमें लोगों की प्रार्थनाओं का बहुत बड़ा हाथ है। अमूमन यहाँ पर बरसात आने से पहले सडकें खोद दी जाती हैं, जैसे कि पहले ही बहुत अच्छी थीं और ऊपर से पानी निकासी का इतना उत्तम प्रबंध कि सैलाब लाने के लिए ५ मिनट या शायद उससे भी कम की बारिश ही काफी हो। निरंतर चलते रहने वाले निर्माण-कार्य के कारण यहाँ सालभर इतनी धूल-मिटटी होती है कि किसी को भी ये सोचकर हैरानी नहीं होती कि बारिश के बाद इतनी सारी कीचड़ आती कहाँ से है। फिर इतनी गाड़ियाँ और सभी को कहीं न कहें जाने की इतनी जल्दी कि कोई कहीं भी न पहुंचे। यही कारण है कि लोग जून के महीने से ही बारिश न होने की प्रार्थना करना शुरू कर देते हैं। बसावट के हिसाब से यह शहर घना बसा हुआ है, तो इतने लोगों की प्रार्थनाएं तो कबूल होनी ही हैं। आखिर, बारिश कितनी अच्छी सही, कीचड़-जमाव-ट्रैफिक किसे पसंद है? फिर मच्छर और कीड़े-मकोड़े भी तो हैं! बाकी दिन भगवान् को इतने मन से याद नहीं किया जाता, किसी के पास इतना समय नहीं, सो, तब वो जो भी चाहें कर सकते हैं, हम बस उन्हें कोस कर आगे बढ़ जायेंगे।
नोट: मैंने सचमुच देखा है लोगों को प्रार्थना करते!
अब चूंकि बारिश का होना यहाँ पर बड़ी घटना है, और लोग अधिकतर काम के बोझ तले दबे रहने वाले स्पेशल क्लास मजदूर हैं, सो, आसमान का रंग ज़रा भी बदलने पर लोग बड़े अचरज से कांच की खिड़की के उस पार से, झुण्ड बनाकर आसमान को निहारा करते हैं। इसे ५ मिनट का कॉफ़ी ब्रेक या सिगरेट ब्रेक समझ सकते हैं। फिर, गुडगाँव गुडगाँव है (The city of monsoon prayers), आसमान का रंग चाहे दिन के समय एकदम काला ही हो जाये, लेकिन वो बारिश होने की गारंटी बिलकुल नहीं है: कभी कुछ भी नहीं, कभी मामूली छींटे और बौछार और कभी ३० सेकंड की तेज़ बारिश और उसके बाद कुछ भी नहीं।
फिलहाल, यहाँ सबकुछ भीगा-२ सा है, भले ही गीला नहीं। इस मौसम में तबीयत भरकर कम से कम एक बार बारिश में नहाने की इच्छा तो है ही। कल बहुत दिनों बाद एक अच्छी फिल्म देखी। जब सिनेमाहाल से बहार निकली तो संतुष्ट थी। इसके बाद पिताजी से बात हुई, जानती हूँ कि वो परेशान थे, वजह कहीं न कहीं मैं थी, फिर भी, उन्होंने कहा कि मुझे किसी की भी कोई परवाह नहीं होनी चाहिए, पहले खुद की ख़ुशी, उसके बाद दुनिया। फिर उन्होंने वो कहा, जिसे सुनने के लिए दुनिया का हर बच्चा लालायित रहता है। उन्होंने कहा, "मेरी बेटी किसी के आगे क्यूँ झुक जाये, वो किसी से कम है क्या?" मुझे पता था कि उन्हें मुझपर गर्व है लेकिन कह देने की बात ही अपनेआप में एक है। महसूस कर पा रही हूँ खुद को, भीगा-भीगा सा।
हाँ तो, मैं जानती हूँ कि बारिश के लिए कुछ ज्यादा ही जल्दी बेसब्री दिखा रही हूँ, अभी तो जुलाई की शुरुआत भर है। ये बेसब्री बिलकुल वैसी ही है जैसे गर्मियों का आभास मिलते ही, "अब आम आयेंगे", सोच कर खुश हो जाना, जबकि मेरी पसंदीदा दशहरी तो गर्मियों के बिलकुल अंत में आती है। मेरे ख्याल से अब समझना आसान हो गया होगा।
गर्मियां मुझे सिर्फ आम, लीची और छुट्टियों की वजह से ही सुहाती थीं, जिसमें से छुट्टियों का योगदान ही सबसे ऊपर होता था। अब तो वो बात नहीं रही। जाड़े कभी अच्छे लगे ही नहीं। बरसात हमेशा से अच्छी लगती रही है, बिना कोई शर्त।
अब आते हैं गुडगाँव पर। ज्यादा समय नहीं हुआ यहाँ पर रहते, मगर मैंने देखा है कि जब सभी जगह अच्छी बारिश हो रही होती है, तब यहाँ नहीं होती, और जब यहाँ होती है तब और कहीं नहीं होती। इसमें लोगों की प्रार्थनाओं का बहुत बड़ा हाथ है। अमूमन यहाँ पर बरसात आने से पहले सडकें खोद दी जाती हैं, जैसे कि पहले ही बहुत अच्छी थीं और ऊपर से पानी निकासी का इतना उत्तम प्रबंध कि सैलाब लाने के लिए ५ मिनट या शायद उससे भी कम की बारिश ही काफी हो। निरंतर चलते रहने वाले निर्माण-कार्य के कारण यहाँ सालभर इतनी धूल-मिटटी होती है कि किसी को भी ये सोचकर हैरानी नहीं होती कि बारिश के बाद इतनी सारी कीचड़ आती कहाँ से है। फिर इतनी गाड़ियाँ और सभी को कहीं न कहें जाने की इतनी जल्दी कि कोई कहीं भी न पहुंचे। यही कारण है कि लोग जून के महीने से ही बारिश न होने की प्रार्थना करना शुरू कर देते हैं। बसावट के हिसाब से यह शहर घना बसा हुआ है, तो इतने लोगों की प्रार्थनाएं तो कबूल होनी ही हैं। आखिर, बारिश कितनी अच्छी सही, कीचड़-जमाव-ट्रैफिक किसे पसंद है? फिर मच्छर और कीड़े-मकोड़े भी तो हैं! बाकी दिन भगवान् को इतने मन से याद नहीं किया जाता, किसी के पास इतना समय नहीं, सो, तब वो जो भी चाहें कर सकते हैं, हम बस उन्हें कोस कर आगे बढ़ जायेंगे।
नोट: मैंने सचमुच देखा है लोगों को प्रार्थना करते!
अब चूंकि बारिश का होना यहाँ पर बड़ी घटना है, और लोग अधिकतर काम के बोझ तले दबे रहने वाले स्पेशल क्लास मजदूर हैं, सो, आसमान का रंग ज़रा भी बदलने पर लोग बड़े अचरज से कांच की खिड़की के उस पार से, झुण्ड बनाकर आसमान को निहारा करते हैं। इसे ५ मिनट का कॉफ़ी ब्रेक या सिगरेट ब्रेक समझ सकते हैं। फिर, गुडगाँव गुडगाँव है (The city of monsoon prayers), आसमान का रंग चाहे दिन के समय एकदम काला ही हो जाये, लेकिन वो बारिश होने की गारंटी बिलकुल नहीं है: कभी कुछ भी नहीं, कभी मामूली छींटे और बौछार और कभी ३० सेकंड की तेज़ बारिश और उसके बाद कुछ भी नहीं।
फिलहाल, यहाँ सबकुछ भीगा-२ सा है, भले ही गीला नहीं। इस मौसम में तबीयत भरकर कम से कम एक बार बारिश में नहाने की इच्छा तो है ही। कल बहुत दिनों बाद एक अच्छी फिल्म देखी। जब सिनेमाहाल से बहार निकली तो संतुष्ट थी। इसके बाद पिताजी से बात हुई, जानती हूँ कि वो परेशान थे, वजह कहीं न कहीं मैं थी, फिर भी, उन्होंने कहा कि मुझे किसी की भी कोई परवाह नहीं होनी चाहिए, पहले खुद की ख़ुशी, उसके बाद दुनिया। फिर उन्होंने वो कहा, जिसे सुनने के लिए दुनिया का हर बच्चा लालायित रहता है। उन्होंने कहा, "मेरी बेटी किसी के आगे क्यूँ झुक जाये, वो किसी से कम है क्या?" मुझे पता था कि उन्हें मुझपर गर्व है लेकिन कह देने की बात ही अपनेआप में एक है। महसूस कर पा रही हूँ खुद को, भीगा-भीगा सा।