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Thursday, September 12, 2013

अन्त्याक्षरी

कभी सोचा नहीं था कि इसके बारे में कुछ लिखूँगी: बचपन में सबसे आमतौर पर खेला जाने वाला खेल जब लोग बहुत हों और उत्पात मचाना गैर मुनासिब। शायद यही वजह है कि इसकी शुरुआत "बैठे-२ थक गए हैं, करना है कुछ काम; शुरू करो अन्त्याक्षरी लेकर प्रभु/हरि का नाम!" बोलकर करते हैं। ज़ाहिर है, चूंकि यह अन्त्याक्षरी (अंत के अक्षर से खेला जाने वाला खेल) है, तो पहला गाना 'म' अक्षर से शुरू करना होता है। एक ऐसा खेल जिसमें बच्चों के साथ-२ बड़े भी उतना ही चाव दिखाते हैं।
मेरे परिवार में सभी को घूमने-फिरने का बड़ा शौक रहा है। सड़क, कार, लम्बा सफ़र और ढेरों गाने, ड्राईवर का भी उतना ही चाव दिखाना, बड़ों का खेल में सम्मिलित हो जाना (कभी फैसला करके अपनी-२ टीम निर्धारित कर लेना और कभी अचानक से ही किसी की ओर से भी गाने लग जाना), खड़ूस रिश्तेदारों का कोमल पक्ष बाहर आ जाना, हार-जीत और किसी की बेईमानी या गलत गाना पकड़ लेने या हारते-हारते अचानक से १ से १० की गिनती के दौरान बच जाने का रोमांच, सफ़र का यूं कट जाना और परिणाम से परे इस सब का एक सुनहरी याद में तब्दील होकर मन में दर्ज हो जाना; शायद ये सब सिर्फ मेरे अनुभव नहीं हैं, इनसे और भी लोग इत्तेफाक रखते होंगे।
बीती बातों को ख़ास तवज्जो देने की वजह है मेरी हालिया 'रोड ट्रिप'। परिवार के साथ तो ऐसी कुछ योजना लम्बे समय से नहीं बनी; बहरहाल एक सहकर्मी की शादी में शिरकत करने के लिए हम कुछ लोग चले। सबको नहीं जानती थी इसलिए उनकी बातों में शामिल नहीं हो पा रही थी।  सफ़र थोड़ा लम्बा था, सो थोड़ी देर के बाद अन्त्याक्षरी खेलने का सुझाव आया। लड़कियों और लड़कों की अलग-२ टीम बनीं। चूंकि अब आजकल कोई खेल खेलता नहीं, तो घिसे-पिटे गानों के अलावा किसी को और कुछ याद नहीं आ रहा था। मम्मी-पापा के साथ बचपन में खूब अन्त्याक्षरी खेलने के कारण मुझे उनके खजाने के काफी गाने पता थे। घर के सबसे बड़े बच्चे को होने वाले कई फायदों में से ये भी एक था। हर समय के गानों को उसी समय के लोगों को बड़े उत्साह से गाते सुनने का अपना अलग ही मज़ा था। ये अलग बात है कि हम बच्चों की कोशिश हमेशा नए से नए गाने गाने की होती थी। खैर, कुछ देर तक सर्दी-ज़ुकाम के कारण गला खराब होने और इस डर से भी कि उन पुराने गानों में से शायद ही किसी को कुछ पता होगा, मैं चुप रही; लेकिन जल्दी ही टीम को हारने से बचाने का दबाव आने लगा। आखिर, फिर जो भी याद आने लगा, हम गाने लगे। कुछ पुराने गाने हमारी पीढ़ी के लोगों में भी काफी लोकप्रिय हैं, सबको न सिर्फ उनके बोल पता थे, सबका एक सुर में उन्हें गाना काफी सुखद था। सचमुच, पुराने गानों में अलग ही बात है।
शादी का मज़ा अपनी जगह था लेकिन सैंकड़ों किलोमीटर का फासला गाने बजाने, गिनतियाँ गिनने और अपने मनमुताबिक नए-२ नियम बनाने में जो कटा वो किसी और मज़े से बढ़कर था। अपने गले की हालत और सारी सकुचाहट, मैं सब भूल गयी। फिर कोई अजनबी नहीं था। उस समय का रोमांच और उत्साह वापस आने के बाद भी काफी समय तक बना रहा।
पुरानी भूली हुई कितनी ही चीज़ों की तरह जब इस घटना ने यादों के दरवाज़े पर दस्तक दी तो मुझे एहसास हुआ कि आज मन बहलाने को कितनी ही चीज़ें होने के बावजूद मैंने इन छोटी-२ बातों को कितना 'मिस' किया। चाहे वो मेरी नानी का घर रहा हो जब गर्मियों की छुट्टियों के दौरान वहां जुटे सारे लोगों ने शाम को आँगन या छत में मन भर कर गाने गाये तब तक जब तक कि एक टीम के लोग पूरी तरह सो नहीं गए या हार नहीं गए (जीतने का जूनून इतना था कि एक-२ करके सारे लोग सो जाते थे लेकिन हम बच्चे शाम से लेकर रात भर यानी कि भोर होने तक दबी-२ आवाज़ में गाने गाते रहते थे लेकिन हार नहीं मानते थे) या फिर मेरा खुद का घर जहां बिजली चले जाने पर दुनिया भर को कोसते हुए घर के सारे लोग छत पर चटाई और फोल्डिंग लेकर इकठ्ठा हो जाते थे और 'Zee T.V.' पर आने वाले अन्नू कपूर के शो अन्त्याक्षरी की तर्ज़ पर दीवाने-परवाने-मस्ताने टीम बनाकर गाने गाते थे (यहाँ पर मामला थोड़ा अलग था, एक बार खेल में शामिल हो जाने पर गेम पूरी तरह बड़ों का हो जाता था और हम बच्चे किनारे! हारने वाले के लिए पेनल्टी निर्धारित होती थी लेकिन बिजली आते ही सभा बिना किसी फैसले के भंग हो जाती थी)। कई बार तो ऐसा होता था कि शुरुआत सिर्फ हम ममेरे-फुफेरे भाई-बहन आपस में करते थे लेकिन मेरा फुफेरा भाई जो मुझसे उम्र में थोड़ा छोटा और गाने में कमज़ोर था, निरमा, रसना, लाइफबॉय और पता नहीं क्या-२ विज्ञापन गाने शुरू कर देता था और उन्हें सही बताने की ज़िद में अड़ जाता था। १०-१२ हारियाँ हो जाने के बाद वो रोते-२ किसी बड़े के पास जाता था और उनकी मदद मांगता था। उसकी ख़ुशी के लिए खेल फिर से शुरू होता था।  लोग धीरे-२ करके खुद से ही या फिर हमारे कहने पर जुड़ते जाते थे और देखते ही देखते हमारी टीमों में घर के सारे धुरंधर शामिल हो जाते थे।
अब दुनिया ज्यादा विकसित है, लोगों में एकता नहीं, बिजली जाती नहीं, साथ बैठने का समय नहीं और हम भी अब मासूम से बच्चे नहीं। समय के साथ-२ सब बदल गया है, कुछ भी सरल नहीं है, हम अपनी व्यस्तताओं के बीच कदमताल करते रहते हैं, फिर भी हम सौभाग्यशाली हैं, हमारी यादों का खजाना भरा-पूरा है। हमने जो समय देखा वो शायद हमारे बाद कोई नहीं देखेगा। हम कम से कम उस कसक को महसूस कर सकते हैं जो शायद हमारे बाद किसी के दिल में टीस बनकर चुभेगी भी नहीं।

फिलहाल तो होंठों पर आ रहा है: 'दिल ढूँढता, है फिर वही, फुर्सत के रात-दिन… '