Search This Blog

Thursday, March 07, 2013

बात निकली

बहुत दिन से कलम से कोई कविता न निकली,
बात ज़ुबां से तो निकली मगर दिल से न निकली।

जाने कब से अरमान सजाये हुए बैठी थी ,
वो दुल्हन जो आज सज-संवरकर न निकली।

बाज़ार-ए-दर्द में मिलीं अच्छी कीमतें,
दिल से मेरे जब एक आह भी न निकली।

वो आये मगर हड़बड़ी में इस कदर,
एक याद भी उनकी ज़ेहन से न निकली।

देखा है जबसे बेवफाई का मंज़र,
न सांस ही निकली, जाँ भी न निकली।

टुकड़ा-टुकड़ा कर समेटी है ज़िन्दगी,
कुछ किरचियाँ न निकलीं, फांसें न निकलीं।

वो था एक छोटा और मामूली किस्सा,
अब तक मन से जिसकी याद न निकली।

अकेलेपन का वो दौर भी अजीब था,
साथ मेरे तब मेरी परछाईं न निकली।

जानते थे बहुत पुराने रिश्तों की कीमत,
जिनकी नश्तर-सी बात ज़रा ठहरकर न निकली।