पिछले कई महीनों में जीवन के ना जाने कितने समीकरण बदल गए हैं - मेरा पता, पहचान, सम्बन्ध, समबन्धी, शौक, आदतें, पसंद-नापसंद और मैं खुद | बहुत कुछ नया है लेकिन हर नयी चीज़ रास आती ही हो, ये ज़रूरी तो नहीं |
शिकायतें तमाम हैं; हैं भी और नहीं भी हैं | इस बीच जब कभी भी अपने लिखे को खोलकर पढ़ा, भीतर कुछ गर्माहट सी मालूम हुई | कहीं न कहीं मैं समझती थी कि वो क्या है लेकिन, अपनी समझ को समझने की फुर्सत नहीं निकाल पाई |
आज फिर से वही हुआ : मैंने खुद को पढ़ा, एक-दो नहीं कई दफा, अलग-अलग पन्ने | दोबारा वही गर्माहट महसूस की, लेकिन इस बार उस उड़ते हुए ख़याल को हमेशा की तरह ख़ारिज नहीं किया | बात बस इतनी सी है कि मैंने अपने साथ अपना वाला वक़्त नहीं बिताया | मैंने अपने काम, परिवेश और संबंधों को ही अपनी पहचान मान लिया लेकिन इन सबसे इतर भी काफी कुछ है जिसे तवज्जो देना भूल गयी | ये वही सबकुछ है जो मुझे इंसान बनाता है और वो गर्माहट जो मैंने अपने भीतर महसूस की , वो और कुछ नहीं, मेरी आत्मा की मौजूदगी है |
बहरहाल, कोशिश करूंगी कि हमेशा अपने दिल को, अपनी भावनाओं को सहेजती रहूँ, कुछ न कुछ लिखती रहूँ, अगर यहां नहीं तो कहीं और, लेकिन ज़रूर | लिखते रहना ज़रूरी है !