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Tuesday, October 19, 2010

बचपन और समझदारी (भाग-1)



कल रात मेरी अपनी फुफेरी बहन और फुफेरे भाई से बात हुई | आपस में बात करने का वही उत्साह-- बार-बार एक दूसरे से फ़ोन छीनना, एक-दूसरे को तंग करने की हरसंभव कोशिश, फ़ोन पर मौजूद शख्स का मज़ाक बनाने हेतु दूसरे का पीछे से आवाज़ लगाना, ढेर सारी शरारतें और उनसे भी ज़्यादा खिलखिलाहटें.. याद नहीं आता, आखिरी बार मैं इतनी खुश कब थी लेकिन यकीनन तब हम सब अपने-अपने घरों के निवासी थे |
२० मिनट के इस वार्तालाप ने मुझे उन सारे दिनों की याद दिला दी जो हमने साथ में बिताये थे | मुझे याद आ रहे हैं गर्मियों के वो दिन जब मेरे घर को अपनी ननिहाल कहने वाले ढेर सारे बच्चे वहाँ इकट्ठे हुआ करते थे, तब वहाँ सोने के लिए जगह की भी कमी हो जाया करती थी | हमउम्र बच्चों की अपनी अलग-अलग टोलियाँ बन जाया करती थीं | मेरी टोली में हम तीन लोग ही आते थे (सबसे बड़े, सबसे समझदार) |
दीदी के साथ मेरी अच्छी बनती थी, और भाई के साथ भी, समस्या सिर्फ इस बात की थी कि उनकी आपस में नहीं बनती थी | जब भी उनके बीच लड़ाई होती थी, जो कि अक्सर ही होती थी, मुझे अपनी तरफ लेने के लिए काफी खींचतान होती थी और अंत में दीदी अपने बड़े होने का फायदा उठाकर मुझे अपनी ओर कर ही लेती थीं |
उन दिनों का सच में बड़ी बेसब्री से इंतज़ार हुआ करता था क्यूंकि हमें पता होता था कि हम मिलेंगे | फिर, हम बड़े हो गए | पहले पढाई और बाद में नौकरियों की तलाश में दूर-दूर चले गए और सिर्फ इतना ही नहीं हुआ, हम व्यस्त भी होने लगे | एक बार जो घर से निकले तो फिर वापस ही नहीं लौट पाए | जीवन नीरस और अकेला-सा हो गया, हमें चिंताएँ सताने लगीं और ये सब इतने आराम से हुआ कि समझ में भी नहीं आया कि क्या पीछे छूट गया | फिर, कभी इतनी फुर्सत भी नहीं हुई कि इस बारे में कुछ सोच भी सकें, बस इतना महसूस होता रहा कि कुछ तो कमी है, इतनी व्यस्तता के बीच भी एक खालीपन है | गर्मियाँ.. वो तो अब सिर्फ लू और गर्म धूप का दूसरा नाम भर रह गयीं हैं |
बहुत समय के बाद हमारी इस तरह बात हुई है जैसे कुछ भी नहीं बदला | हम अब भी वही हैं-- बुद्धुओं की तरह झगड़ने वाले | अब ज़िक्र आने पर भले ही कुछ देर के लिए शर्मा जायें (क्यूंकि अब हम सचमुच समझदार जो हो गए हैं, या यूँ कहें कि समझदार दिखने का स्वांग-भर करते हैं ) लेकिन फिर वो सारे मासूम और बेवकूफी भरे खेल खेलने को तैयार हो जायेंगे जो बचपन में खेला करते थे क्यूंकि अन्दर से हम यही चाहते हैं, सवाल है बस, इकट्ठे होने का |

4 comments:

  1. woh bachpan jisse hum piche chod gaye aaj is bhagdadh bhari zindagi mein wahi yaad aata hai..
    aaj man karta hai woh lamhe jine ka joh humne bitaye the humne angan ki chao mein
    bharish mein bhegte hue, ladte aur jhagadte hue par phir bhi saath rehte hue aaj bhi jab piche mudh ke dekhti hoon toh man machal uthta woh ek lamha jine ke liye

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  2. bachpan me hame samajhdari to kuch zyada hoti hi hai jisper baad me jakar hasi thodi si sharmahat k sath aati hai.

    wiase didi aur bhai k nok-jhonk me tumhe value to bahut milti hogi..??


    your attempt is nice to explain your internal feeling with old memories after having a 20 min talk with your best friend like cousin.

    keep posting............


    At last but first of all Congrats for having your "fursat-k-pal" with you.

    (next wale per comment fir kabhi)

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  3. आपका परिचय बेहद लाजवाब है...कम से कम मेरे जैसे "साफ्टवेयर इंजीनियर्स के धुर आलोचक" का तो मुंह बंद हो गया आपका ब्लाग और उसमें आपका परिचय पढ कर ..मै तो हमेशा कहता रहता था ये इंजीनियर्स एकदम संवेदनहीन होते हैं...

    कमसे कम आप मशीनों के बीच भी इंसान रहना चाहती हैं...आईटी वालों को कोडिंग से अलग कुछ भी लिखते देखता हूं तो और वो भी हिंदी मे तो लगता है कि इस देश मे सब राजनीति को गाली बकने इंजीनियर ही नहीं है...कुछ सरोकारी लोग भी हैं...हमारे जैसे अल्पज्ञों के पूर्वाग्रह टूटते रहे इसके लिए आप लिखती रहिए....

    आपके लेखन का फैन बचपन मे भी था आज भी हूं, लेकिन जलन भी तब से आज तक है...

    भाई बहनो से बिछड़ने की पीड़ा सबकी साझी होती है...जो भी उनके साथ रहा है..

    मेरे घर मे एक वक्त 7 भाई बहन थे, आज मै अकेला हूं...मै भी सोच रहा हूं कुछ लिखूं..

    कभी हमारे ब्लाग पर भी तशरीफ लाएं...

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  4. wahi yaad aa gaya............
    mujhko yakin hai sach kehti thi,
    jo bhi ammi kehti thi,
    jab mere bachpan k din the,
    chand me pariyan rehti thi...........

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