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Saturday, March 24, 2012

फुर्सत या आज़ादी?

रोज़मर्रा की ज़िन्दगी मुझसे मेरे सारे शौक छीने लिए जा रही है. पहले पढाई वाले दौर को अपनी व्यस्तता के चलते कोसा करती थी और अब नौकरी वाले दौर को उससे भी ज्यादा कोसती हूँ. शायद इसमें सबसे ज्यादा बुरा ये लगता है कि इस व्यस्तता की आदी होती जा रही हूँ. काफी-काफी समय गुज़र जाता है कुछ नया लिखे हुए. डर लगता है कि कहीं ये समयांतराल बढ़कर सालों में न बदल जाये या लिखने का शौक ही न छूट जाये.
न रोज़ की एक जैसी ज़िन्दगी में लिखने लायक नए-२ अनुभव मिलते हैं और न ही समय. समय है तो थोडा आराम कर लेने का मोह आड़े आ जाता है. कुछ लिखने लायक है, इच्छा भी है तो समय नहीं; समय है तो दिमाग खाली.
बस थोड़ी-सी फुर्सत की चाह है और कुछ जंग लगी हुई रचनात्मकता को समय-२ पर घिसते रहने की जिद जो अपने को मशीन से अलग बता पाती हूँ. आज बहुत दिनों के बाद जो थोड़ी फुर्सत हुई तो समझ ही नहीं आया कि उसका क्या किया जाये. पता ही नहीं चल रहा कि फुर्सत में हूँ या किसी तरह की आज़ादी मिली है.
बचपन में दोनों के मायने बहुत अलग लगा करते थे. फुर्सत वो थी जो मम्मी को होती थी, घर के सारे काम निपटा लेने के बाद. आज़ादी वो थी जो गांधीजी ने हमें दिलाई थी; जैसा कि किताबों में लिखा हुआ था. उस हिसाब से तो आज़ादी ज्यादा कीमती चीज़ हुई क्यूंकि वो बहुत मुश्किलों से और बहुत समय लगने पर मिली थी. सिर्फ इतना ही नहीं, वो किसी और को हमें दिलानी पड़ी थी. फुर्सत कोई किसी को देता या दिलाता नहीं है. एक और फर्क ये भी लगता था कि आजादी सबके काम की चीज़ है जबकि फुर्सत सिर्फ बड़ों को चाहिए होती है.
आज की बात और है. अब फुर्सत मुझे भी चाहिए होती है. शायद मैं भी बड़ी हो गयी हूँ. और आजादी कीमती तो अब भी लगती है और मुश्किल से मिलने वाली भी, मगर उतनी भी नहीं जितनी पहले लगा करती थी. अब उसके बहुत से रूप सामने आ गए हैं. अब हर किसी को आज़ादी चाहिए और अपने किस्म की चाहिए. एक मिल गयी तो दूसरी भी चाहिए. पहले सिर्फ अंग्रेजों से चाहिए थी.
शायद मुझे जिस किस्म की आज़ादी चाहिए वो फुर्सत से काफी मिलती-जुलती है तभी मुझे दोनों एक से लग रहे हैं. शायद मुझे कभी-२ फुर्सत से रहने की आज़ादी चाहिए: जब मैं लिख सकूं, पढ़ सकूं, सोच सकूं, मन भर सो सकूं और बाकी सारे शौक पूरे कर सकूं. शायद मुझे आजादी से रहने को फुर्सत चाहिए. सवाल ये है कि मुझे इस किस्म की, मेरे किस्म की आजादी कौन दिलाएगा? शायद आज़ाद भारत में मुझे मेरे किस्म की आजादी लेने और पाने की आजादी है. और कुछ नहीं तो लिखने की आज़ादी तो है ही. और भी न जाने किन-२ किस्मों की आज़ादियाँ हैं जिन्हें मैं आपने किस्म की आज़ादी पाने के लिए इस्तेमाल कर सकती हूँ. ये सब करना होगा मुझे खुद. और ये सब करने के लिए चाहिए फुर्सत जो कि फिलहाल मेरे पास है; और जब मेरे पास फुर्सत है ही, तो क्यूँ न मैं इसे कुछ समय आज़ादी से रहने में, सुकून से रहने में, कुछ लिखने में, कुछ पढने में और बाकी सारे शौक पूरे करने में खपाऊं??   

Tuesday, June 14, 2011

बदलने और न बदलने का सिलसिला

जब आप एक लम्बे अरसे के लिए अपने शहर से दूर जाते हैं तो लोगों को आपसे एक अलग तरह की उम्मीद हो जाती है. कुछ उम्मीद करते हैं कि जब आप लौटेंगे तो बिलकुल भी नहीं बदले होंगे; और कुछ सोचते हैं कि आप बहुत कुछ नया सीखकर और पहले से बेहतर होकर लौटेंगे.
रोचक तथ्य तो ये है कि आप बदले हों या न बदले हों, हर कोई अपनी उम्मीद के मुताबिक कुछ अच्छे और कुछ बुरे लगने वाले बदलाव ढून्ढ ही लेता है. आपके जीवन में घटने वाली हर एक घटना आपमें कुछ न कुछ बदलती है, मगर ये बदलाव महत्त्वपूर्ण तब हो जाते हैं जब आप शहर बदलते हैं. इनमें से ज़्यादातर बदलाव लोगों को निराश करने वाले ही होते हैं और आमतौर पर खुली बाहों से स्वीकार नहीं किये जाते.
एक नयी दुनिया को टटोलकर वापस आने के बाद आपमें बदलाव आने स्वाभाविक हैं. जब आप पल-२ कुछ नया सीखते और खुद को बदलते रहते हैं, तो क्या एक लम्बे अरसे तक बाहर रहकर बदलावों से अछूते रहने की उम्मीद बेमानी नहीं? एक व्यक्ति को आपसे जो चाहिए वही दूसरे व्यक्ति को नहीं चाहिए. हर किसी की भावनाएं आहत हो जाती हैं. ये बिलकुल उसी तरह है जैसे पिता परदेस जायें, आपकी फरमाइशों की एक लम्बी फेहरिस्त हाथ में लिए. वहां के बाज़ार से किसी कारणवश (अनुपलब्धता या पैसों की कमी इत्यादि) आपका मनचाहा सामन न ला पाएं, मगर उसकी जगह कुछ ऐसा खरीद लें जो उन्हें लगे कि घर ले जाऊंगा तो सबको भायेगा. कुछ लोग तो इतने ज्यादा प्रिय होते हैं कि उनके लिए कुछ विशिष्ट लाने की चाह में उपयुक्त सामान उन्हें सारे बाज़ार में नहीं मिलता. घर वापस जाने पर सारे नाराज़ हैं, कोई खुश नहीं, उन्हें लगता है कि उन्हीं की फरमाइशों के साथ समझौता किया गया है और वे महत्त्वपूर्ण नहीं. कोई ये पूछना ज़रूरी नहीं समझता कि पिता खुद अपने लिए क्या लाये हैं. शायद अपने लिए कुछ भी नहीं.
जब बदलाव लाना खुद आपके हाथ में नहीं तो उन्हें 'अन डू' करना भला आपके हाथ में कैसे होगा? बदलाव तो बिना बताये आ जाते हैं. कुछ सवाल जिनका सामना ऐसी परिस्थितियों में लगभग हर किसी को करना होता है:
* नए दोस्त बन गए तो पुराने दोस्तों की कोई हैसियत ही नहीं?
* ज्यादा कमा रहे हो तो इस कदर घमंड में रहोगे?
दो कारण समझ में आते हैं:
* जब आप पल-२ आ रहे बदलावों का पुलिंदा लेकर वापस जाते हैं तो उसे एकदम से स्वीकार लेना आसान नहीं होता.
* हर कोई आपको पूरी तरह नहीं जानता. आपके व्यक्तित्व का कोई न कोई भाग किसी न किसी से छिपा हुआ रहता है जिसका 'डाटाबेस' पूरी तरह आपके दिमाग में होता है. लम्बा समय बीत जाने पर आपको याद नहीं रहता कि किसे कौन-सा भाग दिखाना है, और यहाँ नज़र आता है उन्हें आपका नयापन.

'तुम बहुत बदल गए हो/अब तुम पहले जैसे नहीं रहे' ये बड़े ही नकारात्मक वाक्य हैं जो कहने वाले से ज्यादा सुनने वाले को चोट पहुंचाते हैं, उन्हें परायेपन का एहसास कराते हैं. अगर आप खुद को ऐसे किसी व्यक्ति का करीबी कहते हैं तो उसे समझिये, समझाइये, स्वीकारिये; तीखी टिप्पणी मत कीजिये. बदलाव के कारण को जानने की कोशिश कीजिये. क्या पता, कल तक जो आपके सामने बिना कहे अपना दिल खोलकर रख देता था, आज उसके आंसू सूख चुके हों; कल तक जो हर मौके पर आपके साथ खड़ा था, वो अपनी तमाम बड़ी-छोटी जीती-हारी लड़ाइयाँ अकेले लड़कर आया हो. क्या पता... 

Sunday, April 17, 2011

एक बात


आज अकेले सड़क पार करते हुए एक ख्याल आकर टकरा गया- मेरे दोस्त मुझसे कहते थे: "तुम अकेले सड़क पार करना कब सीखोगी?" उनमें से कुछ लोगों के लिए ये कहकर भूल जाने वाली बात होती थी तो कुछ लोग इसे सीधे मेरी आत्मनिर्भरता से जोड़ते थे; उन्हें लगता था कि चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो, जब तक बहुत ज़रूरी न हो, किसीसे मदद नहीं मांगनी चाहिए | उन लोगों के लिए मेरी दलील ये होती थी कि चाहे बात कितनी मामूली क्यों न हो, जब तक किसी का हाथ और साथ मिल रहा है, नहीं छोड़ना चाहिए | ये एक बहाना भर हुआ करता था, उस समय खुद के बचाव के लिए |
                  आज ऐसा लगा कि तब कितनी गहरी बात कह गयी थी | आत्मनिर्भरता ज़रूरी है लेकिन हर एक छोटी बात पर उसका ढोल पीटना बिलकुल ज़रूरी नहीं | इंसान को सिर्फ इतना मालूम होना चाहिए कि वह काबिल है, समर्थ है और खुद पर भरोसा होना चाहिए | आत्मनिर्भरता का ज्यादा दिखावा आपको अपनों से दूर कर देता है, कुछ छोटे ही सही, मगर अनमोल पल छीन लेता है |
                   अकेले सड़क पार करने से मैं आज भी उतना ही डरती हूँ जितना पहले डरती थी लेकिन यह पहले भी मालूम था और आज भी मालूम है कि कोई साथ नहीं होगा तो मैं खुद भी कर लूंगी और किया है | कभी किसी राह चलते से मदद नहीं मांगी, हाँ, दोस्त-यार साथ हुए तो कभी मौका भी नहीं छोड़ा और आज भी जबकि यह रोज़ की आदतों में से है, कभी मौका मिला तो नहीं छोडूंगी | वो झिडकियां और हिदायतें कहीं न कहीं अच्छी लगती हैं और अब आसानी से मिलती भी नहीं; न ही अब साथ मिलता है | 

Thursday, January 27, 2011

मनोदशा

अब तक देखती थी तो चारों तरफ शिकवे ही शिकवे थे, मन की गीली मिटटी पर घास-फूस से उगे हुए, हरे-हरे, मगर अब आँखें बंद कर महसूस कर रही हूँ कि कहीं न कहीं वो मेरे तलवों को गुदगुदा रहे हैं, मैं महसूस कर पा रही हूँ उनकी नरमाहट को, मृदुलता को, कोमल छुअन को, खुरदुरी सड़क पर चंद क़दम नंगे पाँव चल चुकने के बाद | अब लगता है, कोई शिकायत इतनी बड़ी नहीं कि जिसकी माफ़ी न हो |
हाँ, घर छोड़कर आई थी, अनजाने शहर, अनजाने लोगों के बीच, सोचा था, कभी अपना नहीं पाउंगी, न मैं इन्हें, ने ये मुझे | अब जबकि ये पड़ाव भी छूटने को है तो एक लगाव, एक जुड़ाव महसूस कर पा रही हूँ,  ठीक वैसे ही जैसे घर में अलग-२ स्वभाव वाले कितने ही लोग होते हैं, मगर आप कभी उन्हें छोड़ नहीं सकते | समझ पा रही हूँ कि नानी के घर से आते समय मम्मी क्यों रोती हैं |

Sunday, January 02, 2011

फुर्सत के दुर्लभ पल

बीते कई दिनों से नौकरी, ट्रेनिंग, exam और पता नहीं कहाँ-कहाँ उलझी हुई हूँ. कुछ सोचना भी चाहूँ तो walk -ins, नेटवर्किंग, मल्टीमीडिया वगैरह से बाहर नहीं आ पा रही. क्या सिर्फ यही बाकी रह गया है ज़िन्दगी में? बहुत सारी और चीज़ें भी तो हैं; जैसे कि बहुत सारे अनसुलझे सवाल जिनके जवाबों को मैंने वक़्त पर छोड़ रखा था और फिर कभी उनकी सुध नहीं ली; कुछ बेहद करीबी रिश्ते जहाँ मिलने कि इच्छा तो है, पर समझ नहीं आता कि बात क्या करूँ; बहुत सारे प्लान्स जिन्हें आने वाले प्लान्स में जोड़ती जा रही हूँ; बहुत कुछ ऐसा जो गलत था, फिर भी किया और भगवान् यहाँ तक कि खुद को भी अपनी बेबसी या मजबूरी तक नहीं बताई; और भी न जाने क्या-२. बीते साल किसी भी शादी में नहीं गयी, इसका अफ़सोस मना सकती हूँ या फिर कई दिनों से घर नहीं गयी, इस बात पर आंसू बहा सकती हूँ या फिर थोड़े ही दिनों में कॉलेज और हॉस्टल छोड़ने के दुःख और आगे नए सिरे से ज़िन्दगी सहेजने की चिंता में डूब सकती हूँ या बाकी सबकी तरह नए साल कि खुशियाँ मनाते हुए सबकुछ भूल सकती हूँ या फिर एक बार और सब कुछ वक़्त पर छोड़ सकती हूँ.
कल कुछ टैगोर साहित्य लेकर आई हूँ और अब मेरे पास करने को काम ही काम है; वो भी मेरा पसंदीदा.