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Friday, June 10, 2011

मेरी पहली कहानी

याद नहीं ये कब की बात है, लेकिन तब मैं बहुत छोटी थी. आज एक मित्र ने पूछा तो याद हो आया.. नया-२ ही लिखना और पढना सीखा था. कोर्स की किताबों में तो उतनी दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन दीदी (बुआ की बेटी) के लिए मेरे चाचा कॉमिक्स किराये पर लाते थे. वो बड़ी थीं तो ज़ाहिर सी बात है कि मुझसे ज्यादा ही पढ़ लेती थीं. हम दोनों टूटा-फूटा ही सही, मगर खुद से पढ़ते थे. इंटेरेस्ट जाग गया, पढने में ही नहीं, कहानियों में भी. अब मेरे लिए भी कॉमिक लायी जाने लगी. कोई और मुझे पढ़कर सुनाये, मुझे अच्छा नहीं लगता था; सो, कुछ ज्यादा ही जल्दी अक्षरों को मिला-२ कर लिखना और पढना सीख गयी थी.
यूं भी पापा बचपन से ही रात में कहानियां सुनाकर सुलाते थे या यूं कहूँ  कि कहानियां सुने बगैर मैं सोती ही नहीं थी. उनका स्टॉक खाली हो जाने पर पुरानी कहानियां दोबारा सुन लेती थी, मगर कभी छोडती नहीं थी. कवितायेँ तो किताब से याद करनी होती थीं इसलिए अच्छी नहीं लगती थीं. शायद यही कारण है कि मेरी पहली रचना एक कहानी थी.
सीधी सी बात है, जो भी पढ़ती या सुनती थी, मेरी कहानी भी उससे ही प्रेरित थी. कहानियों में आम तौर पर तिलिस्मी कुएं या पेड़ इत्यादि का ज़िक्र होता था. मैं कुछ अलग लिखना चाहती थी, जिससे कोई उसे नक़ल न कहे. मैंने सोचा, क्यूँ नहीं एक जादुई सड़क? उस वक़्त मैं पापा की दूकान पर बैठी थी, वहां से सड़क और उसपर आते-जाते लोगों को देखा करती थी. स्कूल में पेंसिल से लिखना होता था, पेन से तो बड़े लोग लिखते थे; सो, हर बच्चे की तरह मुझे भी पेन से लिखने का बड़ा मन होता था. दूकान में उस समय चाचा थे. मैं उनका काम न बढाऊँ इसलिए उन्होंने मुझे कागज़ और पेन दे दिया था.
खैर, मैंने सोचना शुरू किया. सड़क को जादुई बनाने के पीछे भी एक लॉजिक था: सड़क पर अमूमन लोगों को पड़ी हुई चीज़ें मिल जाया करती हैं; तो, मेरी सड़क जादुई थी. लोग उससे जो भी मांगते थे, वो उन्हें देती थी. लोग भी उससे बहुत प्यार करते थे, मगर उसकी सफाई का ध्यान नहीं रखते थे. कुछ भी खाया-पिया, और कूड़ा सड़क पर. एक दिन उस सड़क की जादुई शक्तियां चली गयीं. लोग परेशान हो उठे. वो जो भी मांगते, उन्हें मिलता ही नहीं. उन्होंने सड़क से पूछा. सड़क ने बताया कि वो इतनी गंदी रहती है कि अब किसी की इच्छा को पूरी करने के लायक नहीं बची. लोग बड़े शर्मिंदा हुए. शायद माफी भी मांगी हो. उन्होंने न सिर्फ सड़क को साफ़ किया, बल्कि आगे भी उसकी सफाई का बड़ा ध्यान रखने लगे! तो इस तरह, मेरी कहानी में एक शिक्षा भी थी, साफ़-सफाई रखने की. स्कूल में जो बातें सिखाई जाती हैं, वो कहीं न कहीं दिख ही जाती हैं, क्यूंकि सिर्फ बचपन में ही तो हम उनका पालन करते हैं.
खैर, उस कागज़ में मैंने अपनी गन्दी-सी हस्तलिपि में और बड़ी ही काट-पीट करके लिखा था, मगर जब चाचा को पढाया तो उन्होंने बड़ी ही तारीफ की. हाँ, मुझे 'चीज़' लिखना नहीं आ रहा था, उसे मैंने हर जगह 'जीच' लिखा था. चाचा ने उसे सही कराया और मेरी नज़र में  वो बड़े ज्ञानी और हीरो हो गए! मैंने वो कहानी दो पेज में लिखी थी और नाम था शायद 'सड़क'.
चाचा की हौसला अफजाई से खुश होकर फिर मैंने वो घर में सबको दिखाई. सबने बहुत तारीफ की. मैं इतनी ज्यादा खुश हो गयी कि मैंने वो गन्दा सा पेज कमरे की दीवार पर उतनी ऊंचाई पर जहाँ तक मैं पहुँच सकती थी, चिपका दिया; जिससे आते-जाते हर समय लोग उसे देखें और मेरी तारीफ करें. २ दिन तक वो दीवार पर उपेक्षित-सा लगा रहा, और उसके बाद कमरे की सफाई के दौरान कचरे में फिंक गया! :(
आज ये सब याद आया, तो बड़ी देर तक हंसती रही. आप कितनी देर हँसेंगे?

6 comments:

  1. लिखने का शौक मुझे बचपन से रहा है. जब मम्मी नानी और बुआ के घर चिट्ठी भेजती थीं तो उनके साथ मेरी भी अलग से एक चिट्ठी ज़रूर होती थी जो अमूमन मम्मी की चिट्ठी से ज्यादा बड़ी और interesting होती थी. मम्मी वाली चिट्ठी में बड़ों वाली बोरिंग बातें और काम की बातें होती थीं जबकि मेरी चिट्ठी में होता था सिर्फ प्यार.. ढेर सारा.. दो-तीन पन्ने वाला.
    सोच रही हूँ, तब मैं कितनी ज्यादा कामकाजी थी! शक्कर खाने के लालच अक्सर किचन में बैठकर आलू छील दिया करती थी. :)

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  2. कहानी कैसी भी हो मगर लिखना अच्छा ही होता है रोचक संस्मरण शुभकामनायें

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  3. सुंदर संस्मरण.... प्रवाहमयी लिखा है..... अच्छा लगा

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  4. हसी की बात नही लगभग सब के साथ ऐसे ही होता है। शुभकामनायें।

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  5. Good Ritika.....maja aaya jankr tumhari first kahani k baare mai

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  6. Pehli story itni achi thi.. to experience hone k baad to jhande gaad dogi

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