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Tuesday, January 15, 2013

सपना और सच्चाई

कल रात देर से सोई थी। सुबह उठकर ऑफिस जाने की बिलकुल भी इच्छा न थी। मेरे ख्याल से हर किसी ने कभी न कभी ऐसा अनुभव ज़रूर किया होगा कि जब कहीं जाना हो और सोकर उठने की इच्छा बिलकुल भी न हो तो सपने में ही तैयार होने के उपक्रम होने लगते हैं और जागने के बाद यथार्थ-बोध होने पर गाड़ी भगानी पड़ती है।पहला अलार्म बजकर बंद हो चुका था। नींद हल्की-सी टूटकर तैयार होने की याद दिल चुकी थी। सोने की इच्छा मगर हर बात पर भारी थी। फिर भी मैं उठी, जल्दी-2 तैयार हुई; समय पर ऑफिस जो पहुँचना था। घर में हर कोई तैयार होकर भागने की जल्दी में था। मम्मी ने परांठे बनाकर रखे हुए थे जिन्हें फॉयल में लपेटकर मुझे टिफ़िन में रखना था। परांठे बहुत ही गरम थे, लेकिन मुझे जल्दी थी। ये देखकर मम्मी को एक पुरानी बात याद आ गयी और वो हंसने लगीं। उन्होंने मुझे बताया कि जब मैं छोटी थी तब भी अपना टिफ़िन खुद ही पैक करना चाहती थी। मैं अपने नन्हे-2 हाथों में परांठे पकड़ती थी जो बमुश्किल ही उनमें आते थे और यकायक पापा मुझसे पूछ देते, तुम्हारी बहन कहाँ है? और मैं हाथ फैलाकर कहती, "यहाँ!" (छोटी गोद में खिलाने लायक बहन की ओर इशारा करते हुए ) और मेरे हाथ से परांठे गिर जाते। फिर पापा खूब हँसते। मम्मी ने कहा, "तुम्हारे पापा फलां सीरियल वाले पति से कम हैं क्या?" अब तक हडबडाई हुई-सी मैं, कुछ पल को सुकून से खड़ी होकर ये बात सुनने लगी। मुझे मम्मी के मुँह से अपना बचपन जानना बड़ा ही भला लगता है।
खैर, मैं और मेरी बहन, हम दोनों ने अपने हाथों में रोल बनाकर आलू के परांठे पकड़े और तेज़ी से चलते बने। मेरे ऑफिस की ईमारत मेरे घर से दिखाई देती है। बहन का स्कूल भी पास ही है। हम पैदल जाते हैं और कुछ दूर तक साथ ही चलते हैं। मैं मम्मी की कही बात को सोचकर अभी तक मंद-2 मुस्कुरा रही हूँ। अपनी बहन को रास्ते में ये बात बताती हूँ। रास्ते में उसे ठोकर लगती है और उसका परांठा गिर जाता है। मैं उसे अपना आधा परांठा देती हूँ। वो मना करती है और मुझे ही उसे खाने को कहती है लेकिन मैं नहीं मानती; और फिर हम अपने-2 रास्ते निकल जाते हैं।
दूसरे अलार्म से मेरी नींद टूटती है। मेरे होठों पर मुस्कान है मगर ज्यादा देर तक नहीं। थोड़ी ही देर में वो मुस्कान गायब हो जाती है। मुझे अहसास होता है कि मैं अपने कमरे में अकेली हूँ। वहां घर का कोई नहीं। सुबह वाली कोई भागदौड़ नहीं। मैंने नाश्ता नहीं किया, मेरा टिफ़िन भी पैक नहीं है। मुझे याद आता है कि मैंने कभी अपना टिफ़िन खुद पैक नहीं किया, कि मम्मी सुबह कभी नाश्ते में परांठे नहीं देती थीं। मैं ऑफिस तो जाती हूँ मगर मेरी बहन स्कूल नहीं जाती। पापा ने वो शरारत कभी की ही नहीं। नाश्ता और टिफ़िन तो पी0जी0 वाले भैया तैयार करते हैं। फिर भी सबकुछ कितना असली था। कुछ देर तक तो यकीन ही करना मुश्किल हो रहा था। मैं वापस उसी दुनिया में होना चाहती थी मगर समय पर ऑफिस पहुँचना ज़रूरी था।
वो सपना चाहें जो भी था, मगर मेरे खुशमिजाज़ पापा, स्कूल जाती मेरी बहन की याद (बचपन में हम साथ स्कूल जाते थे: मैं, बहन, भाई), मम्मी का बचपन की बातें बताना, उनका टिफ़िन बनाना, सुबह सबका जल्दी-2 एकसाथ तैयार होना, ये सब असली हैं। जब तैयार होने उठी, तो अचानक बहुत ताज़ा महसूस कर रही थी। मन में रह-रहकर गुदगुदी-सी हो रही थी और अजीब-सी मायूसी भी।
वे सचमुच बड़े सुहाने दिन थे जो अब कभी नहीं लौटेंगे।

2 comments:

  1. दिन तो पखेरु होते पिंजरे मे मैं रख लेता

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  2. you know these are the earlier signs of homesickness. Even I'm suffering from the same. Just one year... after that either i'll call my parents here or I'll fly straight to my loving hometown.
    nice postt... keep writing :)

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