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Thursday, February 03, 2011

कौन कहता है...

कौन कहता है कि प्यार सिर्फ एक बार होता है और एक से ही होता है? कौन कहता है कि समय सब कुछ भुला देता है? जब पहली बार शहर बदला तो लगा कि संवेदनहीनता घर करने लगी है. एक समय पर तो लगने लगा कि सुख-दुःख सबसे ऊपर उठ चुकी हूँ. नए लोगों में से किसी को अपने दिल के करीब रखा नहीं और पुराने भी सभी रिश्तों से दूर होती गयी. फिर दूसरी बार शहर बदला और सबकुछ बेमानी लगने लगा. इस बार संवेदनशीलता का ज्वार आया. मानना ही पड़ा कि कभी किसी से दूर गयी ही नहीं थी बल्कि जितनी भी दूर आती गयी, किसी न किसी को अपने सफ़र में साथ लाती गयी. प्यार करती गयी और झुठलाती गयी. समय के साथ-२ रंग पक्के ही होते गए. अब अपनी हार मान ली है, अब रुक जाना चाहती हूँ.. लेकिन यह भी एक कठोर सत्य है कि मेरे रुकने से दुनिया रुकेगी नहीं, वो चलती ही जाएगी, और अगर मैं रुकी, तो पीछे छूट जाऊँगी. 
अपनी बुद्धिहीनता पर, अपने आप को सबसे ऊपर समझने की मूर्खता पर, अब हंसी आती है. अपनी निरीहता पर अब तरस आता है, और ये कहीं न कहीं आज हम सबकी हालत है. जीवन बहुत कठोर है और हम कठोरता में उससे भी आगे निकल जाना चाहते हैं. हम रुकना नहीं चाहते क्यूंकि हम डरते हैं, वास्तविकता को स्वीकारने से. हमें समझना होगा कि ये होड़ हमें कहीं नहीं ले जाएगी.
दुनिया को देखते- समझते हुए अभी कुछ ही अरसा हुआ है और काफी परिभाषाएं टूटने लगी हैं. ये बहुत ही पीड़ादायी है- जैसे कि लोग तो ये भी कहते थे कि घर एक ही होता है.