ये तब की बात है जब है जब खुशकिस्मती या कहिये कि बदकिस्मती से मुझे लेकर दो धुरंधर कम्पनियों में खींचतान मची हुई थी और इस खींचतान में मेरे कॉलेज के भी कूद पड़ने का पूरा अंदेशा था. तब मैं कुछ समय के लिए underground हो जाना चाहती थी. मैंने फैसला कर लिया था अपनी तत्कालीन कंपनी को छोड़ने का मगर शायद ये उतना आसान न था. सारी तरकीबें बेकार हो रही थीं.
जब गांधीवाद से कुछ हल न हुआ तो मैंने बागी हो जाने का फैसला किया. लंच टाइम से थोडा ही पहले कंपनी गयी, सिस्टम खोला, अपनी निजी files डिलीट कीं और फिर बड़े शान से सबके सामने सामान उठाकर निकल पड़ी. वो अलग बात है कि मेरे मन के चोर में तब भी इतनी हिम्मत न थी कि लंच टाइम से अलग किसी वक़्त पर निकल सकती.
खैर, अपनी सीट से लेकर लिफ्ट तक, लिफ्ट से बिल्डिंग के बाहर तक, मैं बिलकुल सांस रोके निकली. एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा. डर था कि कहीं कोई आवाज़ देकर न रोक ले. तब फिर मैं क्या बोलूंगी? बाहर आकर सीधे रिक्शा किया, वहां से एक ऑटो, और फिर एक और ऑटो. अपने ठिकाने तक बिना किसी रुकावट पहुँच गयी. मगर इस पूरी भागदौड़ के दौरान मैं अकेली न थी. कोई और भी था मेरे साथ.. सामने न सही, फ़ोन पर! मेरा एक मित्र, जिसकी संयोग से कॉल आ गयी थी और फिर उसे इतना मज़ा आया कि पूरी घटना के दौरान उसे एक पल भी फ़ोन न रखा और पल-२ की खबर ली. मेरी भी हिम्मत इससे थोड़ी बढ़ गयी.
बातों-२ में ही उसने बताया कि उसे उस रात की ट्रेन से घर निकलना है और उसकी ट्रेन कानपुर होते हुए जाएगी. जाट आन्दोलन के चलते मेरी ट्रेन वैसे भी रद्द हो गयी थी. आनन-फानन में मैंने भी साथ चलने की पेशकश कर दी; वो भी तब जबकि उसकी खुद की टिकट confirm न थी. ट्रेन के छूटने में अभी काफी वक़्त था. मैंने खाया-पीया, कुछ देर सुस्ताया और फिर पैकिंग शुरू कर दी. शाम को स्टेशन के लिए निकली पर समय से पहुँच न सकी. संयोग तो देखिये कि ट्रेन खुद भी समय पर स्टेशन न पहुँच सकी! खैर, मैं जैसे-तैसे कानपुर पहुंची और फिर वहां से लखनऊ. घर वालों को बिना कोई सूचना दिए मैं घर पहुंची थी. उनकी ख़ुशी तो देखते ही बनती थी; होली का त्यौहार जो था.