रोज़मर्रा की ज़िन्दगी मुझसे मेरे सारे शौक छीने लिए जा रही है. पहले पढाई वाले दौर को अपनी व्यस्तता के चलते कोसा करती थी और अब नौकरी वाले दौर को उससे भी ज्यादा कोसती हूँ. शायद इसमें सबसे ज्यादा बुरा ये लगता है कि इस व्यस्तता की आदी होती जा रही हूँ. काफी-काफी समय गुज़र जाता है कुछ नया लिखे हुए. डर लगता है कि कहीं ये समयांतराल बढ़कर सालों में न बदल जाये या लिखने का शौक ही न छूट जाये.
न रोज़ की एक जैसी ज़िन्दगी में लिखने लायक नए-२ अनुभव मिलते हैं और न ही समय. समय है तो थोडा आराम कर लेने का मोह आड़े आ जाता है. कुछ लिखने लायक है, इच्छा भी है तो समय नहीं; समय है तो दिमाग खाली.
बस थोड़ी-सी फुर्सत की चाह है और कुछ जंग लगी हुई रचनात्मकता को समय-२ पर घिसते रहने की जिद जो अपने को मशीन से अलग बता पाती हूँ. आज बहुत दिनों के बाद जो थोड़ी फुर्सत हुई तो समझ ही नहीं आया कि उसका क्या किया जाये. पता ही नहीं चल रहा कि फुर्सत में हूँ या किसी तरह की आज़ादी मिली है.
बचपन में दोनों के मायने बहुत अलग लगा करते थे. फुर्सत वो थी जो मम्मी को होती थी, घर के सारे काम निपटा लेने के बाद. आज़ादी वो थी जो गांधीजी ने हमें दिलाई थी; जैसा कि किताबों में लिखा हुआ था. उस हिसाब से तो आज़ादी ज्यादा कीमती चीज़ हुई क्यूंकि वो बहुत मुश्किलों से और बहुत समय लगने पर मिली थी. सिर्फ इतना ही नहीं, वो किसी और को हमें दिलानी पड़ी थी. फुर्सत कोई किसी को देता या दिलाता नहीं है. एक और फर्क ये भी लगता था कि आजादी सबके काम की चीज़ है जबकि फुर्सत सिर्फ बड़ों को चाहिए होती है.
आज की बात और है. अब फुर्सत मुझे भी चाहिए होती है. शायद मैं भी बड़ी हो गयी हूँ. और आजादी कीमती तो अब भी लगती है और मुश्किल से मिलने वाली भी, मगर उतनी भी नहीं जितनी पहले लगा करती थी. अब उसके बहुत से रूप सामने आ गए हैं. अब हर किसी को आज़ादी चाहिए और अपने किस्म की चाहिए. एक मिल गयी तो दूसरी भी चाहिए. पहले सिर्फ अंग्रेजों से चाहिए थी.
शायद मुझे जिस किस्म की आज़ादी चाहिए वो फुर्सत से काफी मिलती-जुलती है तभी मुझे दोनों एक से लग रहे हैं. शायद मुझे कभी-२ फुर्सत से रहने की आज़ादी चाहिए: जब मैं लिख सकूं, पढ़ सकूं, सोच सकूं, मन भर सो सकूं और बाकी सारे शौक पूरे कर सकूं. शायद मुझे आजादी से रहने को फुर्सत चाहिए. सवाल ये है कि मुझे इस किस्म की, मेरे किस्म की आजादी कौन दिलाएगा? शायद आज़ाद भारत में मुझे मेरे किस्म की आजादी लेने और पाने की आजादी है. और कुछ नहीं तो लिखने की आज़ादी तो है ही. और भी न जाने किन-२ किस्मों की आज़ादियाँ हैं जिन्हें मैं आपने किस्म की आज़ादी पाने के लिए इस्तेमाल कर सकती हूँ. ये सब करना होगा मुझे खुद. और ये सब करने के लिए चाहिए फुर्सत जो कि फिलहाल मेरे पास है; और जब मेरे पास फुर्सत है ही, तो क्यूँ न मैं इसे कुछ समय आज़ादी से रहने में, सुकून से रहने में, कुछ लिखने में, कुछ पढने में और बाकी सारे शौक पूरे करने में खपाऊं??
न रोज़ की एक जैसी ज़िन्दगी में लिखने लायक नए-२ अनुभव मिलते हैं और न ही समय. समय है तो थोडा आराम कर लेने का मोह आड़े आ जाता है. कुछ लिखने लायक है, इच्छा भी है तो समय नहीं; समय है तो दिमाग खाली.
बस थोड़ी-सी फुर्सत की चाह है और कुछ जंग लगी हुई रचनात्मकता को समय-२ पर घिसते रहने की जिद जो अपने को मशीन से अलग बता पाती हूँ. आज बहुत दिनों के बाद जो थोड़ी फुर्सत हुई तो समझ ही नहीं आया कि उसका क्या किया जाये. पता ही नहीं चल रहा कि फुर्सत में हूँ या किसी तरह की आज़ादी मिली है.
बचपन में दोनों के मायने बहुत अलग लगा करते थे. फुर्सत वो थी जो मम्मी को होती थी, घर के सारे काम निपटा लेने के बाद. आज़ादी वो थी जो गांधीजी ने हमें दिलाई थी; जैसा कि किताबों में लिखा हुआ था. उस हिसाब से तो आज़ादी ज्यादा कीमती चीज़ हुई क्यूंकि वो बहुत मुश्किलों से और बहुत समय लगने पर मिली थी. सिर्फ इतना ही नहीं, वो किसी और को हमें दिलानी पड़ी थी. फुर्सत कोई किसी को देता या दिलाता नहीं है. एक और फर्क ये भी लगता था कि आजादी सबके काम की चीज़ है जबकि फुर्सत सिर्फ बड़ों को चाहिए होती है.
आज की बात और है. अब फुर्सत मुझे भी चाहिए होती है. शायद मैं भी बड़ी हो गयी हूँ. और आजादी कीमती तो अब भी लगती है और मुश्किल से मिलने वाली भी, मगर उतनी भी नहीं जितनी पहले लगा करती थी. अब उसके बहुत से रूप सामने आ गए हैं. अब हर किसी को आज़ादी चाहिए और अपने किस्म की चाहिए. एक मिल गयी तो दूसरी भी चाहिए. पहले सिर्फ अंग्रेजों से चाहिए थी.
शायद मुझे जिस किस्म की आज़ादी चाहिए वो फुर्सत से काफी मिलती-जुलती है तभी मुझे दोनों एक से लग रहे हैं. शायद मुझे कभी-२ फुर्सत से रहने की आज़ादी चाहिए: जब मैं लिख सकूं, पढ़ सकूं, सोच सकूं, मन भर सो सकूं और बाकी सारे शौक पूरे कर सकूं. शायद मुझे आजादी से रहने को फुर्सत चाहिए. सवाल ये है कि मुझे इस किस्म की, मेरे किस्म की आजादी कौन दिलाएगा? शायद आज़ाद भारत में मुझे मेरे किस्म की आजादी लेने और पाने की आजादी है. और कुछ नहीं तो लिखने की आज़ादी तो है ही. और भी न जाने किन-२ किस्मों की आज़ादियाँ हैं जिन्हें मैं आपने किस्म की आज़ादी पाने के लिए इस्तेमाल कर सकती हूँ. ये सब करना होगा मुझे खुद. और ये सब करने के लिए चाहिए फुर्सत जो कि फिलहाल मेरे पास है; और जब मेरे पास फुर्सत है ही, तो क्यूँ न मैं इसे कुछ समय आज़ादी से रहने में, सुकून से रहने में, कुछ लिखने में, कुछ पढने में और बाकी सारे शौक पूरे करने में खपाऊं??