पंछी उड़ चले हैं, अलग-२ दिशाओं में |
लिए नए नीड़ का स्वप्न, घने पेड़ की छाँव में |
क्या होगा उस नीड़ का, जहाँ आज भी उनकी महक है,
पहली उड़ान का डर और पहली चहक है |
बुलाता होगा वो पेड़, ये सोच नींदें उड़ा ले जाती है,
महत्त्वाकांक्षा की तीव्र बयार फिर, हर ख्याल को उड़ा ले जाती है |
महत्त्वाकांक्षा की तीव्र बयार फिर, हर ख्याल को उड़ा ले जाती है |
ReplyDeletebahut sundar kya bat hai
सत्य है
ReplyDeleteबचपन और समझदारी का नया episode क्या बात है अच्छी कलम-बंदी है, खासकर आखरी लाइन "महत्त्वाकांक्षा की ......." reality को काफी हद तक छूती है.
ReplyDeleteबचपन की कई यादें होती है जिनके बारे में सोच कर कभी-2 काफी मज़ा आता है.गर इजाज़त हो तो मैं भी अपने बचपन की एक बात शेयर करना चाहूँगा. एक वक़्त था जब हमें तितलियाँ पकड़ने का काफी शौक चढ़ा था, तब हम सभी भाइयो में अच्छे से अच्छे नसल की तितलियाँ पकड़ने की होड लगती रहती थी. साथ ही दुसरो की तितलियों को भागने के लिया हम एक dialoge बोला करते थे " उडबे रे तितलिया तोरा देबो दूध भात ".पता नहीं ये तितलियों को समझ में आती थी या नहीं लेकिन इसको लेकर हममें लड़ाई ज़रूर हो जाती थी.
कुछ भी हो पर वो वक़्त था लाजवाब जिसे सलाम करने को जी चाहता है
बचपन की समझदारी में लिपटे हर लम्हे को सलाम
परिओं के जहाँ,तितलिओं की शोखी और नानी की कहानिओं को सलाम
हो सलाम हर कुचे, हर गली और हर चबूतरों को
वो बारिश के पानी में डूबते-उतरते कागज़ की कश्ती को सलाम.