लड़कियां वैसे ही पापा की दुलारी होती हैं और मैं तो उनकी पहली संतान हूँ। बचपन से मम्मी के मुंह से किस्से सुनती रही हूँ कि कैसे पापा दूर से ही हम लोगों का रोना सुन लेते थे जबकि सबको लगता था कि ये उनका कोई वहम है।
आजतक जिस किसी ने भी मुझे सुबह उठाने की कोशिश की है, वो मेरा दुश्मन ही रहा है, सिर्फ पापा को छोड़कर। उनकी तकनीक ही ऐसी रही है। बहुत धैर्य चाहिए इसके लिए। सिरहाने बैठकर वो कुछ भी पूछना शुरू कर देते हैं। शुरुआत काफी छोटे-2 सवालों से होती है जिनके जवाब मैं नींद में भी दे सकूँ, जैसे कि : मैं किस क्लास में गयी हूँ। नींद में भी लगता है कि कैसे पापा को नहीं पता? ये तो पता होना ही चाहिए और फिर जवाब तो देना ही देना होता है। फिर कुछ और बातें, और अंततः सोने की हर कोशिश छोड़कर उठ ही जाना और खुद को किसी वार्तालाप के मध्य में पाना। कुलमिलाकर पापा की जीत और मेरे हर ड्रामे की हार।
मम्मी का तरीका हमेशा दूसरा ही रहा है। दो बार कहेंगी उठ जाओ और तीसरी बार दूर से ही आवाज़ लगाकर कहेंगी, "उठ रही हो या आकर बताएं?" उसके बाद मजाल है कि दोबारा सो सकें? जाड़ों में तो और भी आसान होता है, रजाई तहाकर रख दो, बस।
पापा को हमारे गुस्से से भी डर लगता है, आमतौर पर जो कहो, मासूम बच्चे की तरह मान लेते हैं। घुमाने - फिराने और खिलने - पिलाने के बेहद शौक़ीन।
खैर, पापा पर अचानक प्यार आने की वजह है कि मैंने हालफिलहाल उन जैसा कोई व्यक्ति देखा और कुलमिलाकर अनुभव काफी अच्छा रहा। पापा को आदत है, ट्रेन में हमेशा कोई न कोई बात छेड़ देने की जिसमें आसपास बैठा हर व्यक्ति शामिल हो जाता है। विषय राजनीति, देश के वर्तमान हालात या फिर कुछ भी हो सकता है और फिर थोड़ी ही देर में कोई अजनबी नहीं रहता, सब एक परिवार हो जाते हैं।
कभी-2 लगता है कि पापा ही हैं जो पूरे देश को एक कर सकते हैं लेकिन कभी-2 उनकी इस आदत पर गुस्सा भी आता है कि आखिर क्या ज़रुरत है अजनबी लोगों से इतना मित्रवत होने की?
कुछ दिन पहले रक्षाबंधन पर घर जा रही थी जब किसी ने दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मेरा बटुआ चुरा लिया। उस समय मैं अपनी बोगी में थी। मेरा मूड काफी ख़राब था। शुरू में तो लोगों ने वजह पूछी, उसके बाद अपने कामों में रम गए। मेरा मूड वैसा ही रहा। दोबारा से सारे कार्ड्स बनवाना मुसीबत लग रहा था। आखिर कुछ ही दिनों के लिए घर जा रही थी, उसमें भी करने के लिए काम बढ़ गए।
उसी बोगी में पुराने लखनऊ का एक व्यापारी बैठा था। उसने मेरे चेहरे पर चिंता देखी। अचानक सबका ध्यान खींचते हुए बोला, "कितने पैसे थे आपके बटुए में?", मैंने बताया : "आठ सौ". उसने कहा, "बस इतनी सी बात के लिए इतना परेशान हैं? अभी हम सब सौ-सौ रुपये जोड़े देते हैं, मगर आप अब सामान्य हो जाइये! खुश रहिये। कुछ खाने के लिए चाहिए तो संकोच मत कीजियेगा, हम खरीद देंगे।" मैं थोड़ा सकपका गयी। मैंने कहा, "ऐसी कोई बात नहीं है, पैन कार्ड वगैरह था, दोबारा बनवाना होगा" । फिर उसने मुझसे डेबिट कार्ड वगैरह के लिए पूछा तो मैंने बताया कि वो सब मैं ब्लाक करा चुकी हूँ। उसने कहा, "फिर चिंता की क्या बात है? सब कुछ तो आपने कर ही दिया। पर्स तो वापस मिलेगा नहीं" । फिर उसने एक-दो चीज़ें और पूछीं और मुझे बताया कि पैन कार्ड के लिए क्या करना है। इसके बाद बातें किसी और दिशा में मुड़ गयीं।
थोड़ी ही देर बाद हम लोगों ने देखा कि वहां पर एक व्यक्ति एक सेब को अपने हाथों से तोड़ने की कोशिश कर रहा है और उसके दोस्त उससे मज़े ले रहे हैं। स्थिति ये थी कि उस व्यक्ति को भूख लगी थी। सेब एक ही था और खाने वाले चार। उस व्यापारी ने कहा कि वो मदद कर देगा लेकिन बदले में उसे भी सेब में हिस्सा चाहिए। खैर, वो लोग मान गए। उस व्यक्ति ने अपनी जेब से एक कार्ड निकाला जो कि उसने बताया कि कोई काम का कार्ड नहीं है। उसे वो ऐसी ही चीज़ों के लिए रखता है। फिर बड़ी बारीकी से उसने सेब के कई हिस्से किये और फिर वहां मौजूद हर व्यक्ति ने उसमें से एक - एक टुकड़ा लिया।
कह लीजिये कि उस व्यक्ति के पास हर ताले की चाबी थी। हर बात के लिए एक बात थी। थोड़ी ही देर में वहां कोई अजनबी नहीं था। मेरा गुस्सा गायब था और मेरी एक रात खराब होने से बच गयी थी।
आजतक जिस किसी ने भी मुझे सुबह उठाने की कोशिश की है, वो मेरा दुश्मन ही रहा है, सिर्फ पापा को छोड़कर। उनकी तकनीक ही ऐसी रही है। बहुत धैर्य चाहिए इसके लिए। सिरहाने बैठकर वो कुछ भी पूछना शुरू कर देते हैं। शुरुआत काफी छोटे-2 सवालों से होती है जिनके जवाब मैं नींद में भी दे सकूँ, जैसे कि : मैं किस क्लास में गयी हूँ। नींद में भी लगता है कि कैसे पापा को नहीं पता? ये तो पता होना ही चाहिए और फिर जवाब तो देना ही देना होता है। फिर कुछ और बातें, और अंततः सोने की हर कोशिश छोड़कर उठ ही जाना और खुद को किसी वार्तालाप के मध्य में पाना। कुलमिलाकर पापा की जीत और मेरे हर ड्रामे की हार।
मम्मी का तरीका हमेशा दूसरा ही रहा है। दो बार कहेंगी उठ जाओ और तीसरी बार दूर से ही आवाज़ लगाकर कहेंगी, "उठ रही हो या आकर बताएं?" उसके बाद मजाल है कि दोबारा सो सकें? जाड़ों में तो और भी आसान होता है, रजाई तहाकर रख दो, बस।
पापा को हमारे गुस्से से भी डर लगता है, आमतौर पर जो कहो, मासूम बच्चे की तरह मान लेते हैं। घुमाने - फिराने और खिलने - पिलाने के बेहद शौक़ीन।
खैर, पापा पर अचानक प्यार आने की वजह है कि मैंने हालफिलहाल उन जैसा कोई व्यक्ति देखा और कुलमिलाकर अनुभव काफी अच्छा रहा। पापा को आदत है, ट्रेन में हमेशा कोई न कोई बात छेड़ देने की जिसमें आसपास बैठा हर व्यक्ति शामिल हो जाता है। विषय राजनीति, देश के वर्तमान हालात या फिर कुछ भी हो सकता है और फिर थोड़ी ही देर में कोई अजनबी नहीं रहता, सब एक परिवार हो जाते हैं।
कभी-2 लगता है कि पापा ही हैं जो पूरे देश को एक कर सकते हैं लेकिन कभी-2 उनकी इस आदत पर गुस्सा भी आता है कि आखिर क्या ज़रुरत है अजनबी लोगों से इतना मित्रवत होने की?
कुछ दिन पहले रक्षाबंधन पर घर जा रही थी जब किसी ने दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मेरा बटुआ चुरा लिया। उस समय मैं अपनी बोगी में थी। मेरा मूड काफी ख़राब था। शुरू में तो लोगों ने वजह पूछी, उसके बाद अपने कामों में रम गए। मेरा मूड वैसा ही रहा। दोबारा से सारे कार्ड्स बनवाना मुसीबत लग रहा था। आखिर कुछ ही दिनों के लिए घर जा रही थी, उसमें भी करने के लिए काम बढ़ गए।
उसी बोगी में पुराने लखनऊ का एक व्यापारी बैठा था। उसने मेरे चेहरे पर चिंता देखी। अचानक सबका ध्यान खींचते हुए बोला, "कितने पैसे थे आपके बटुए में?", मैंने बताया : "आठ सौ". उसने कहा, "बस इतनी सी बात के लिए इतना परेशान हैं? अभी हम सब सौ-सौ रुपये जोड़े देते हैं, मगर आप अब सामान्य हो जाइये! खुश रहिये। कुछ खाने के लिए चाहिए तो संकोच मत कीजियेगा, हम खरीद देंगे।" मैं थोड़ा सकपका गयी। मैंने कहा, "ऐसी कोई बात नहीं है, पैन कार्ड वगैरह था, दोबारा बनवाना होगा" । फिर उसने मुझसे डेबिट कार्ड वगैरह के लिए पूछा तो मैंने बताया कि वो सब मैं ब्लाक करा चुकी हूँ। उसने कहा, "फिर चिंता की क्या बात है? सब कुछ तो आपने कर ही दिया। पर्स तो वापस मिलेगा नहीं" । फिर उसने एक-दो चीज़ें और पूछीं और मुझे बताया कि पैन कार्ड के लिए क्या करना है। इसके बाद बातें किसी और दिशा में मुड़ गयीं।
थोड़ी ही देर बाद हम लोगों ने देखा कि वहां पर एक व्यक्ति एक सेब को अपने हाथों से तोड़ने की कोशिश कर रहा है और उसके दोस्त उससे मज़े ले रहे हैं। स्थिति ये थी कि उस व्यक्ति को भूख लगी थी। सेब एक ही था और खाने वाले चार। उस व्यापारी ने कहा कि वो मदद कर देगा लेकिन बदले में उसे भी सेब में हिस्सा चाहिए। खैर, वो लोग मान गए। उस व्यक्ति ने अपनी जेब से एक कार्ड निकाला जो कि उसने बताया कि कोई काम का कार्ड नहीं है। उसे वो ऐसी ही चीज़ों के लिए रखता है। फिर बड़ी बारीकी से उसने सेब के कई हिस्से किये और फिर वहां मौजूद हर व्यक्ति ने उसमें से एक - एक टुकड़ा लिया।
कह लीजिये कि उस व्यक्ति के पास हर ताले की चाबी थी। हर बात के लिए एक बात थी। थोड़ी ही देर में वहां कोई अजनबी नहीं था। मेरा गुस्सा गायब था और मेरी एक रात खराब होने से बच गयी थी।