कितनी अजीब बात है.. आप खाने-पीने के शौक़ीन हों या न हों, आपकी ज़िन्दगी की सबसे हसीं यादें अमूमन खाने-पीने की चीज़ों से जुडी होती हैं. एक दिन यूं ही अचानक ज़िक्र छिड़ा उन चीज़ों का जिनके स्वाद का लुत्फ़ हमने बचपन में खूब उठाया मगर आज के समय में उन्हें कोई पूछता भी नहीं (दरअसल उनके बारे में लोगों को पता ही नहीं). ये बात भी सामने आयी कि आज भी हम उनके लिए उतने ही लालची हैं मगर या तो जानते नहीं कि उन्हें अब कैसे पाया जाये, या इतनी फुर्सत नहीं कि उनके बारे में सोचा भी जाये.
कुछ ऐसे ही होते थे 'बजरंगी के चने' भी. बजरंगी, एक बूढा व्यक्ति, हाथों में गज़ब का हुनर. दिन में स्कूल में मीठे-चटपटे चने बेचने वाला; शाम को वही चीज़ें राजा बाज़ार (लखनऊ में मेरा मोहल्ला) की गलियों में आवाजें लगाते हुए घूम-२ कर बेचने वाला. याद बेहद धुंधली हो चली है. न तो बजरंगी की शक्ल याद है, न आवाज़ और न ही वो शब्द जिनके कानों में पड़ते ही घर के बड़े तक उतावले हो उठते थे. जी हाँ, एक सड़क पर बिकने वाली चीज़ जो घर में भी शौक से लायी और खायी जाती थी, सो किसी को हक नहीं था की पैसे मांगने पर डांट सके.
वो तीखे चने.. अच्छे-अच्छों के आँख-नाक से पानी निकाल लाने वाले मगर लालच रहता था वहीं का वहीं. और कुछ याद हो न हो वो स्वाद और उन नारंगी-लाल से चनों की शक्ल अच्छी तरह याद है.
पुरानी ही बात है ये भी कि किसी को पापा से कहते सुना था कि बजरंगी मर गया, इस प्रश्न के जवाब में कि आजकल वो दिखाई नहीं दे रहा. पापा को या उस व्यक्ति को कितना अफ़सोस था, याद नहीं, मगर मुझे था तब भी जबकि मरने का मतलब भी ठीक से पता नहीं था.
इस घटना के बाद वो स्वाद दोबारा नसीब नहीं हुआ. वजह कुछ दिनों पहले ही पता चली. वो हुनर सिर्फ बजरंगी के ही पास था, और किसी के भी पास नहीं, यहाँ तक कि उसके अपने बेटे के पास भी नहीं. इस बार ज्यादा बड़ा अफ़सोस हुआ. मेरी इस सोच को धक्का लगा जो ये कहती थी कि जो सामान इस दुकान पर नहीं मिला वो किसी और पर मिल जायेगा. मेरा मन आज भी ललचाता है मगर अब ये असंतुष्टि हमेशा की है.
बदलते समय के साथ कितना कुछ नया देखने को मिल रहा है मगर बहुत कुछ ऐसा है जो पीछे छूटता जा रहा है. हम ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में इतने व्यस्त हैं कि हमें फुर्सत ही नहीं दो पल को पीछे मुड़कर देखने की. वो बेहद आसान-सी खुशियाँ; आज के समय में अस्तित्वहीन; और हम कभी समझा भी नहीं पाएंगे कि बात किस बारे में कर रहे हैं. आने वाले समय में कोई उन्हें जानेगा भी नहीं और हम भी शायद जल्दी ही भूल जायें.
काफी देर से ही सही, मगर बजरंगी को श्रद्धांजलि!
कुछ ऐसे ही होते थे 'बजरंगी के चने' भी. बजरंगी, एक बूढा व्यक्ति, हाथों में गज़ब का हुनर. दिन में स्कूल में मीठे-चटपटे चने बेचने वाला; शाम को वही चीज़ें राजा बाज़ार (लखनऊ में मेरा मोहल्ला) की गलियों में आवाजें लगाते हुए घूम-२ कर बेचने वाला. याद बेहद धुंधली हो चली है. न तो बजरंगी की शक्ल याद है, न आवाज़ और न ही वो शब्द जिनके कानों में पड़ते ही घर के बड़े तक उतावले हो उठते थे. जी हाँ, एक सड़क पर बिकने वाली चीज़ जो घर में भी शौक से लायी और खायी जाती थी, सो किसी को हक नहीं था की पैसे मांगने पर डांट सके.
वो तीखे चने.. अच्छे-अच्छों के आँख-नाक से पानी निकाल लाने वाले मगर लालच रहता था वहीं का वहीं. और कुछ याद हो न हो वो स्वाद और उन नारंगी-लाल से चनों की शक्ल अच्छी तरह याद है.
पुरानी ही बात है ये भी कि किसी को पापा से कहते सुना था कि बजरंगी मर गया, इस प्रश्न के जवाब में कि आजकल वो दिखाई नहीं दे रहा. पापा को या उस व्यक्ति को कितना अफ़सोस था, याद नहीं, मगर मुझे था तब भी जबकि मरने का मतलब भी ठीक से पता नहीं था.
इस घटना के बाद वो स्वाद दोबारा नसीब नहीं हुआ. वजह कुछ दिनों पहले ही पता चली. वो हुनर सिर्फ बजरंगी के ही पास था, और किसी के भी पास नहीं, यहाँ तक कि उसके अपने बेटे के पास भी नहीं. इस बार ज्यादा बड़ा अफ़सोस हुआ. मेरी इस सोच को धक्का लगा जो ये कहती थी कि जो सामान इस दुकान पर नहीं मिला वो किसी और पर मिल जायेगा. मेरा मन आज भी ललचाता है मगर अब ये असंतुष्टि हमेशा की है.
बदलते समय के साथ कितना कुछ नया देखने को मिल रहा है मगर बहुत कुछ ऐसा है जो पीछे छूटता जा रहा है. हम ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में इतने व्यस्त हैं कि हमें फुर्सत ही नहीं दो पल को पीछे मुड़कर देखने की. वो बेहद आसान-सी खुशियाँ; आज के समय में अस्तित्वहीन; और हम कभी समझा भी नहीं पाएंगे कि बात किस बारे में कर रहे हैं. आने वाले समय में कोई उन्हें जानेगा भी नहीं और हम भी शायद जल्दी ही भूल जायें.
काफी देर से ही सही, मगर बजरंगी को श्रद्धांजलि!
Aisi cheezon ki list ka yahan swagat hai.. apne bachpan ke chatorepan ko saajha karein. Shuruaat main karti hoon: Kampat!
ReplyDeleteबजरंगी चला गया, जैसे हम सबको जाना है लेकिन उसके चनों का स्वाद कम से कम राजा बाज़ार वालों की जुबान पर तो हमेशा रहेगा. कम से कम हम दोनों तो उस जायके को साझा कर ही सकते हैं. कड़वे और मीठे चनों का उसका कांबिनेशन डेडली होता था,और अद्भुत तो ये था कि वो चने सबसे सस्ते किस्म के छोटे वाले होते थे जिन्हे शायद अच्छे काबुली चनों से बीनकर अलग कर दिया जाता हो लेकिन बजरंगी उन चनों को भी लाजवाब जायका दे जाता था. आज भी जब किसी लइया चना वाले के पास सुलगती हुई हड़िया देखता हूं तो बजरंगी की याद आ जाती है. वैसे एक बात ये भी है कि जितने कड़वे उसके चने होते थे, उतना ही कड़वा वो खुद भी था .... :P
ReplyDeleteलैमनचूस या लैमनजूस :P
ReplyDeletegulguli wali toffee.. :)
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